शनिवार, सितंबर 04, 2010

अवमूल्यन का शिकार इलेक्ट्रानिक मीडिया

अवमूल्यन का शिकार इलेक्ट्रानिक मीडिया


संचार तकनीकी के विकास युग में, पत्रकारिता क्षेत्र में जब टीवी चैनल आये, तो लगा था कि अब एक नये युग की शुरुआत होगी, जो देश को वह तस्वीर दिखाएगा, जिसे प्रिंट मीडिया नहीं दिखा पाता है, लेकिन अल्प समय में ही इस अवधारणा को झटका लगा और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने अपनी टीआरपी के चक्कर में पत्रकारिता की गरिमा तार-तार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इनके विवेक और बुद्धि की बानगी और टीआरपी के लिए पत्रकारिता के साथ किए गए बलात्कार की सीमा देखिए कि बिहार में जिन पुलिस अधिकारियों के अपहरण नक्सलवादियों ने कर लिए हैं, उनके बीवी बच्चों की संवेदनाओं से बार बार खेलते हुए उन्हें टीवी पर रिपीट दर रिपीट कर रहे हैं। वे बच्चों से बार बार पूछ रहे हैं कि आपके पिता को कौन किडनेप करके ले गया है। क्या दस बीस करोड़ खर्च करके इन मदारियों को यह अधिकार मिल जाता है कि ये किसी की संवेदनाओं तक का खयाल न करें?आप एक चार पन्नों का दैनिक या  साप्ताहिक या वार्षिक समाचार पत्र निकालना चाहते हैं तो सरकार का पूरा अमला उसकी जांच में ऐसे जुट जाता है, जैसे बेचारा अखबार निकालने वाला साक्षात ओसामा बिन लादेन हो? लेकिन ये इलेक्ट्रानिक चैनल वाले  अपनी मरजी से कुछ भी दिखाएं, कुछ भी चलाएं, सरकार जैसे इनके हाथ की कठपुतली बन गई लगती है। अन्यथा  क्या कारण है कि इन पर सरकारी कानून की जगह कहा जाता है कि अपनी नियमावली स्वयं बना लें और उसका पालन करें। जबकि प्रिंट मीडिया पर हजारों पाबंदियां  हैं। यहां तक कि सरकार का एक साधारण सिपाही यदि न चाहे तो डिक्लेरेशन फाइल तक नहीं हो सकता। कितना हास्यास्पद और शर्मनाक होता है, जब बलात्कार की शिकार महिला से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की महिला पत्रकार यह पूछती है कि आपको कैसा लग रहा है? भूकंप आया हुआ हो, तबाही मची हो, आदमी मलवे में दबा पड़ा हो, तो छिद्र ढूंढकर ये पूछते हैं कि 'आप कैसा फील कर रहे हैं? अश्लीलता फैलाती और स्त्री लज्जा को बेचने वाली राखी सावंत इनकी रोल मॉडल हो जाती है और उन्हें अश्लीलता परोसते हुए यह ध्यान कतई नहीं रहता कि टीवी पर उनके समाचार भारतीय परिवार एक साथ बैठकर देख रहा होगा। ये निर्लज्जता के नये अलंबरदार किसी प्रोफेसर के घर में घुसकर उसकी निजता भंगकर देश को दिखाने से भी गुरेज नहीं करते, ये मोहल्लों तक में नैतिकता की अनैतिक ठेकेदारी करने में शान समझते हैं, जबकि इन टीवी चैनलों की महिला कर्मियों के प्रति इनका व्यवहार इसकी चुगली करता है। टीवी ने पत्रकारिता को फिल्मों से ज्यादा ग्लैमरस बना दिया, इस कारण दिल्ली सहित देश के सभी बड़े शहरों में पत्रकारिता से स्नातक परीक्षा पास करने वाली युवा पीढ़ी, खासकर युवतियां हजार रुपये और मुफ्त में भी काम कर रही हैं, ऊपर से अपने सीनियर द्वारा शोषण की शिकार भी हैं। क्या इलेक्ट्रानिक मीडिया को अपने गिरेबान में झांकना नहीं चाहिए?

पत्रकार को जिम्मेदार नागरिक मानकर समाज उसे मान देता आया है, समाज को उससे अपेक्षाएं होती हैं कि वह भ्रष्टाचार की परतें खोले, देश के विकास में सहयोग करे, गंभीरता के आधार पर समाचार उपलब्ध कराए, कुरीतियों से समाज को मुक्त करने का प्रयास करे। लेकिन कुछ बड़े घरानों के पत्रकारों और टीवी चैनलों ने समाज में विद्रूपता और अश्लीलता फैलाने का ठेका ले लिया है। गांभीर्य और गरिमा को उन्होंने खूंटी पर टांग दिया है। ये केवल व्यावसायिकता की भाषा समझते हैं। संचार संस्कृति का जन मानस पर क्या असर पड़ेगा, इन्हें इससे कोई सरोकार नहीं। ये अपराध समाचार का वीभत्स वर्णन भी कम से कम कपड़े पहने सैक्सी लुक वाली एंकर से कराते हैं। क्या यही पत्रकारिता है कि किसी के दुख को भी सैक्सी अंदाज में व्यक्त किया जाए?

इस सबके लिए कहीं न कहीं हमारा कानून भी दोषी है, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने अखबारों-पत्रिकाओं के शीर्षक पंजीकरण के लिए तो देश भर में अनेक कार्यालय खोल रखे हैं, उनकी भाषा, चित्र और संपादकीय नीति पर भी पैनी नजर रखी जाती है, यहां तक कि वे कितना छपते हैं, किस क्षेत्र में बिकते हैं, इस पर भी मंत्रालय की पूर्ण दृष्टि होती है। परंतु टीवी चैनल पर समाचार कार्यक्रम का शीर्षक क्या हो, उसके कार्यक्षेत्र, कार्यक्रम की रूपरेखा पर मंत्रालय का कोई नियंत्रण नहीं है, यही कारण है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दिशाहीनता की ओर बढ़ रहा है।

अब ऐसे में जब प्रसारण बिल की बात आ रही है तो इलेक्ट्रॉनिक मीडियाई पत्रकार चिल्लपौं मचा रहे हैं, जबकि इस सबके लिए जिम्मेदार वही लोग हैं। वे संचार साधनों का खुला दुरुपयोग कर रहे हैं, वे समाज की गरिमा को नष्ट कर रहे हैं, वे भस्मासुर के नये अवतार हैं, जो किसी को भी जलील कर सकता है। निश्चित रूप से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की हदें तय होनी ही चाहिए,क्योंकि किसी भी सभ्य समाज में इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से असभ्यता का दौर आसानी से शुरू हो सकता है, जिसके लिए दोषारोपण से नहीं, व्यवस्था से चलना होगा।

मीडिया देश के लिए है, न कि देश मीडिया के लिए। अत: देश काल और परिस्थिति को ध्यान में रख कर ही समाचारों का चयन और प्रसारण होना चाहिए। सनसनी फैलाने से या अफवाहों को बल देने से देश का कोई हित नहीं होता, इसलिए पत्रकारों को इस घातक प्रवृति से दूर रहना चाहिए, वर्ना चतुर्थ स्तंभ का भरभरा कर गिर जाना भी एक दिन समाचार हो जाएगा और पत्रकार की विश्वसनीयता संदेह के घेरे में आ जाएगी। ...और तब जो हालात होंगे उसके लिए पत्रकार खुद जिम्मेदार होंगे।

मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी का एक शेर तो सबको याद होगा कि-

खींचो न कमानों को न तलवार निकालो।


जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो॥

लेकिन आज हालात बदल रहे हैं। अब ऐसा कहने वाले और करने वाले दोनों ही गायब है। तब यही शेर सही लगता है। कि -

अब तो दरवाजे से अपने नाम की तख्ती उतार।


लफ्ज नंगे हो गये, शोहरत भी गाली हो गई।।

-चंद्र शेखर शास्त्री