बुधवार, दिसंबर 07, 2011

सुख समृद्धि का आधार है गीता
कलिकाल के इस भौतिक युग में प्रत्येक प्राणी किसी न किसी प्रकार की आधि व्याधि से ग्रस्त है। यह कलियुग का ही प्रभाव है कि ईश्वर में अनास्था, अनुचित खानपान, अनुचित व्यवहार और अनुचित आचरण के कारण समाज में हर स्तर पर भ्रष्टाचार दिनोदिन बढ़ रहा है। अंधी दौड़ में गलाकाट स्पर्धा से सभी एक दूसरे से आगे निकलने के लिए कर्मशुचिता से दूर होते जा रहे हैं, ऐसे में मानव का दुख के गर्त में गिरना निश्चित है। प्राणी मात्र की मानसिक, आत्मिक और शारीरिक शुचिता के लिए ही भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश के बहाने से समस्त शास्त्रों के सार स्वरूप गीता के ज्ञान से हमें अवगत कराया है, जो निश्चय ही समस्त सुख समृद्धि का आधार है।
गीता समस्त शास्त्रों का सार है। इसीलिए इसे सर्वशास्त्रमयी भी कहा जाता है। भारतीय मनीषा को समझने के लिए वेद को जानना आवश्यक है और वेद को समझने के लिए  शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, ज्योतिष, छंद आदि वेदांग व सांख्य, न्याय, योग, वैशेषिक, पूर्व मीमांसा, उत्तरमीमांसा आदि उपांग के साथ ब्राह्मïण ग्रंथ, आरण्यक, उपनिषद और अनेक अध्यात्म ग्रंथों का अध्ययन करना होगा, जिसके लिए एक जन्म तो निश्चय ही कम पड़ेगा। लेकिन यदि मात्र गीता को पढ़कर ही हृदयंगम कर लिया जाए तो मानव समस्त शास्त्र का ज्ञाता हो जाता है और दैहिक, दैविक, भौतिक आदि त्रिविध तापों से मुक्त हो जाता है। गीता केवल ज्ञान और योग की ही विषयवस्तु नहीं, यह मानव कल्याण के प्रत्येक पहलू को आत्मसात किए हुए है। संसार के समस्त ज्ञान को एकत्र कर गीता रूपी गागर में स्थापित करने वाले भगवान श्री कृष्ण स्वयं कहते हैं कि
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदु:॥

(गीता 4/1-2)
अर्थात् वैसे तो यह ज्ञान अनादि काल से उपदेशित है, लेकिन गीता रूप में यह आज मेरे द्वारा प्रगट हुआ है।
प्रागैतिहासिक दृष्टिï से देखते हैं तो गीता आज से लगभग 5142 वर्ष पूर्व महर्षि वेदव्यास कृत महाभारत के भीष्म पर्व के पच्चीसवें अध्याय के प्रारंभ में संजय के द्वारा धृतराष्ट्र को सुनाया गया वह भाग है, जिसमें कलियुग के प्रारंभ होने के तीस वर्ष पूर्व मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी के दिन कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन के नङ्क्षदघोष नामक रथ पर सारथी के रूप में विराजमान स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा मोहग्रस्त युद्धविमुख अर्जुन को उपदेशित किया गया है। इसी दिन को हम गीता जयन्ती के रूप में मनाते हैं। गीता के पहले अध्याय के बीसवें श्लोक से संजय भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद रूप में श्रीमद् गीता का आरंभ करते हैं और अठारहवें अध्याय के चौहत्तरवें श्लोक में इति पद से इसका समापन करते हैं।
श्रीमद्भगवद् गीता में 18 अध्याय हैं, जो अर्जुनविषादयोग, सांख्ययोग, कर्मयोग, ज्ञानकर्मसंन्यासयोग, कर्मसंन्यासयोग, आत्मसंयमयोग, ज्ञानविज्ञानयोग, अक्षरबह्मïयोग, राजविद्याराजगुह्ययोग, विभूतियोग, विश्वरूपदर्शनयोग, भक्तियोग, क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग, गुणत्रयविभागयोग, पुरुषोत्तमयोग, दैवासुरसम्पद्विभागयोग, श्रद्धात्रयविभागयोग और मोक्षसंन्यासयोग के नाम से प्रसिद्ध हैं। सभी अध्यायों में प्रवृत्ति तथा प्रकृति में सामंजस्य स्थापित कर निष्काम भाव से कर्म करने की प्रेरणा दी गई है। निष्काम भाव से किया गया कर्म ही भगवत प्राप्ति का कारक कहा गया है। ईश्वर की उपासना के सकाम एवं निष्काम दो भाव बताए गए हैं। दोनों का फल प्राणी को अपने भाव के अनुरूप ही प्राप्त होता है, लेकिन भावना के अनुसार दोनों के फलों में भिन्नता भी होती है। सकाम भाव के भक्त को जहां सांसारिक भोग एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है, वहीं निष्काम भाव से भक्ति करने वाला ईश्वरीय सत्ता का अधिकारी परमात्म तत्व को प्राप्त होता है। सांसारिक सुख तो समय सीमा से बंधे है, जिनका नष्टï होना निर्धारित है, किन्तु मोक्ष सुख तो समस्त कर्मों के क्षय होने के पश्चात ही प्राप्त होता है। यही सच्चिदानंदस्वरूप है और यही एकमात्र मानव जीवन का परम लक्ष्य है।
वस्तुत:गीता का उपदेश भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन के माध्यम से समस्त जीवों के आत्म कल्याण के लिये ही किया है। आत्मतत्व की दृष्टि से संसार के सभी प्राणी एक समान हैं। इनमें न तो कोई छोटा है न बड़ा। हाथी से चींटी तक सभी बराबर हैं। न कोई कोई श्रेष्ठ है और न कोई हीन। न कोर्ई ब्राह्मण है और न ही शूद्र। समस्त भेदों से परे तथा हानि लाभ, जीवन मरण, यश-अपयश, सुख दुख आदि सभी स्थितियों से ऊपर आत्मतत्व का स्वरूप होता है। जो इन सभी परिस्थितियों में समभाव से उस परमतत्व का ध्यान करता है, उसी में रमण करता है, वही परमात्मा को प्राप्त करता है। गीता के सत्य, ज्ञानपूर्ण व गंभीर उपदेश, आत्मसात करने वाले मनुष्य को महापतित दशा से उठाकर देवताओं के स्थान पर बैठाने की शक्ति रखते हैं।
समस्त सृष्टि में जो ज्ञेय है अथवा अज्ञेय है, प्रतीति है या अनुभव से परे है, वह सब माया है। समस्त चराचर में परमात्मा ही विद्यमान है। पुनरपि वह निर्लिप्त है। वह केवल दृष्टा है। मार्गदर्शक है और सुख दुख हर्ष विषाद आदि से परे है। वहीं संसार के सभी प्राणी अपने अपने कर्मों के अनुसार सुख या दुख पाते हैं। अपने भीतर होने वाली सभी प्रवृत्तियों का कर्ता, हर्ता एवं नियन्ता प्राणी स्वयं ही है। इसीलिए यह संसार सुख दुख, हानि लाभ, हर्ष विषाद आदि से भरा पड़ा है। जहां जीव को सृष्टिï के अटल नियम के अनुसार अपने अपने कर्म का फल भोगना होता है। यही गीता का सार है।
संसार में किसी भी ग्रंथ की जयंती नहीं मनाई जाती, केवल गीता जयंती मनाने की परंपरा पुरातन काल से चली आ रही है क्योंकि अन्य ग्रंथ किसी मनुष्य द्वारा लिखे या संकलित किए गए हैं, जबकि गीता स्वयं श्रीभगवान के श्रीमुख से नि:सृत है-
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनि:सृता।।
इसलिए इस ग्रंथ में कहीं भी श्रीकृष्ण उवाच शब्द नहीं आया है। जब श्रीकृष्ण बोलते हैं तो श्रीभगवानुवाच का प्रयोग किया गया है। कलियुग के प्रभाव के कारण धर्म लोप की अवस्था में अज्ञान तिमिर से मुक्त करने वाला ग्रंथ केवल गीता ही है। क्यों कि शास्त्र कहते हैं कि कलि प्रभाव से न तो अब अवतार होंगे, न ही सिद्धियां होंगी, साधुता और तपस्विता के भी दर्शन नहीं होंगे और प्रजापरायण नीतिवान, परोपकारी राजा भी नहीं होंगे। अनाचार अपने चरम पर होगा। ऐसे में आत्मकल्याण का एक ही मार्ग बचता है और वह है गीता ज्ञान।
श्रीमद्भगवद्गीता जीवन में सफलता की कुंजी है। न सिर्फ विद्वानों ने, बल्कि विश्व के अनेक सफल व्यक्तियों ने श्रीमद्भगवद्गीता के महत्व को समझा है और उससे प्रेरणा भी ग्रहण की है। स्वामी विवेकानंद ने गीता को अपने जीवन व्यवहार में उतारा था। स्वामी कल्याण देव ने शिक्षा की अलख जगाने में गीता को ही चरितार्थ किया था। गीता जीवन के गूढ़ रहस्यों को सुलझाती है। गीता की उपयोगिता इसी बात से देखी जा सकती है कि हजारों वर्ष पश्चात भी इसकी प्रासंगिकता यथावत है। क्योंकि उस समय की समस्याएं और परिस्थितियां आज भी विद्यमान हैं। आज के इस जीवन संघर्ष में तो गीता की उपयोगिता व प्रासंगिकता और अधिक हो गई है, क्योंकि यह अध्यात्म भी है और व्यावहारिक होने के कारण विज्ञान भी। गीता का आध्यात्मिक तत्व यह है कि यह संसार एक युद्धस्थल है, जिसमें प्रत्येक प्राणी सत्य और श्रेष्ठïता के लिए किसी न किसी रूप में बुराइयों से युद्धरत है। कौरव बुराइयों और पांडव अच्छाइयों के प्रतीक हैं। गीता का संदेश है कि यदि अपने कर्म में निरंतर रत रहा जाए और संघर्ष निरंतर रखा जाए, तो अंत में विजय अच्छाइयों की ही होती है।
वेदों के विस्तारकर्ता, पुराणों और महाभारत के रचयिता महर्षि वेदव्यास कहते हैं कि गीता का ध्यान के साथ श्रवण और पठन-पाठन करने व इसकी प्रत्येक पंक्ति का मनन करने से आत्मतत्व की प्राप्ति होती है। जीवन के रहस्यों को सुलझाने में गीता के अध्येता को शास्त्रसंग्रह की कोई आवश्यकता नहीं रहती है। श्रीकृष्ण के मुख से प्रगट गीता में संसार की सभी समस्याओं का समाधान निहित है

रविवार, मई 29, 2011

वाम मार्ग क्या है?

वाम मार्ग क्या है?
युगों युगों से अध्यात्म के महान संसार में स्वयं को जानने और परम तत्व को प्राप्त की इच्छा के चलते मानव अपने लक्ष्य को निर्धारित कर स्वयं को अनुशासन में बद्ध करके अध्यात्म के विभिन्न मार्गों के माध्यम से उस परम तत्व की खोज करता है। जिन्हें अनेक नामों से जाना जाता है। जैसे वाम मार्ग, दक्षिण मार्ग, ज्ञान मार्ग, भक्ति मार्ग, योग मार्ग, आनन्द मार्ग, पिशाच मार्ग आदि।
हम यहां वाम मार्ग की चर्चा करेंगे। वाम शब्द का अर्थ बांया, स्त्री से संबंधित और उलटा है। यहां इसका अर्थ वामा अर्थात स्त्री से है। वाम मार्ग में स्त्री के सम्मान को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। जो विभिन्न रूपों में मातृस्वरूप होती हैं। ऐसा माना जाता है कि बिना वामा की प्रसन्नता के, बिना उसके सहयोग के किसी भी कुल में कोई उच्चावस्था या सिद्धि प्राप्त नहीं की जा सकती।
वाम मार्ग में जाति व्यवस्था को क्षुद्रता माना जाता है और स्त्री को शक्ति स्वरूपा। जाति से उठकर स्त्री को शक्ति स्वरूपा मानकर ही साधक उच्चावस्था को प्राप्तकर अपने लक्ष्य को पा सकते हैं, क्यों कि वाम मार्ग में स्त्री को जो सम्मान प्राप्त है, वह कहीं ओर प्राप्त हो ही नहीं सकता। विभिन्न जाति की महिलाओं को ऊर्जा / शक्ति अर्थात् सर्वोच्च शक्ति का रूप माना जाता है।
इस संबंध में रसयामल तंत्र के उत्तर तंत्र में कहा गया भी है कि
रजस्वला पुष्करं तीर्थ चाण्डाली तु महाकाशी।
चर्मकारी प्रयाग: स्याद्रजकी मथुरामता॥
वाम मार्ग में साधक, स्त्री को वह पवित्रावस्था में हो या अपवित्रावस्था में, अपने जीवन और शरीर से अधिक महत्वपूर्ण और शक्तिवाहिनी मानता है।
वाम मार्गीय तंत्र में न तो जातियां ही महत्वपूर्ण हैं और न रंगभेद। इस मार्ग में मां के नौ रूपों में  भिन्न भिन्न जाति की कन्याओं को सर्वोच्च शक्तिसंपन्न मां दुर्गा का रूप मानकर पूजा जाता है।
रसयामल तंत्र के उत्तर तंत्र में इस संबंध में स्पष्टï कहा गया है कि
नटी कपालिका वेश्या रजकी नापिताङ्गना।
ब्रह्माणी शुद्रकन्या च तथा गोपालकन्यका:।
मालाकारस्य कन्या च नवकन्या प्रकीर्तिता:॥
अर्थात् नट की कन्या, अंतिम संस्कार कराने वाले की कन्या,  वेश्या की कन्या, वस्त्रादि धोकर आजीविका चलाने वाले की कन्या, नापित की कन्या, ब्राह्मïण की कन्या, शूद्र कर्मकार की कन्या, गौ आदि चराकर उदरपूर्ति करने वाले की कन्या और बाग बगीचों का कार्य कर उदराभरण करने वाले की कन्या। इन सभी नौ कन्याओं को दुर्गा स्वरूपा देवी माना जाता है। माँ के नौ समान शक्तिशाली पवित्र रूपों में सर्वशक्तिमान इन नौ कन्याओं को मां दुर्गा देवी की तरह पूजा जाता है और सम्मान दिया जाता है।
नवरात्रि के पर्वों पर पारणा के समय जब इन नव दुर्गा देवी स्वरूपा कन्याओं को पुष्प, फल, भोजन और दक्षिणा आदि प्रदानकर उन्हें प्रसन्न किया जाता है और उनसे आशीर्वाद लिया जाता है। उस समय उनके भोजनादि से निवृत्ति के बाद बचे अवशिष्टï को मां का प्रसादस्वरूप मानकर ग्रहण किया जाता है।
रसयामल तंत्र के उत्तर तंत्र में इसका उल्लेख इस प्रकार किया गया है।
धूपैर्दीपैश्च नैवैद्यैर्विविधै: भगवतीश्ननन्।
विधाय वन्दितां तां च तदुच्छिष्ट स्वयंचरेत्॥
भगवान विष्णु के अवतार, सूर्यवंश के प्रतापी अयोध्या के राजा प्रभु राम द्वारा वाम मार्ग का साधन करते हुए वनवास काल के दौरान शूद्रा शबरी के द्वारा उच्छिष्ट किए गए फलों को ग्रहणकर बिना किसी अहंकार के या छुआछूत के किसी भी मुद्दे पर विचार किए बिना वाममार्ग का पालन किया।
वाममार्ग में कहा है कि अगर एक शक्तिशाली और सक्रिय (शिष्य) अपने जाति, पंथ, अभिमान, अहंकार, धन, आदि के प्रभाव में इन नौ (देवी नौ महिलाओं, जो माँ देवी दुर्गा के नौ रूपों के बराबर माना जाता है) देवियों का अपमान करता है तो वह अपनी शक्ति और ऊर्जा खो देता है, चाहे वह स्वयं देवताओं का राजा इंद्र ही क्यों न हो। यदि इंद्र भी ऐसा करेगा तो  वह भी अपनी सत्ता और राज्य खो देता है।
वाम मार्ग तंत्र में स्पष्ट कहा है कि
अविचारं शक्त्युच्छिष्ठ पिबेच्छक्रपुरो यदि।
घोरञ्च नरकं याति वाममार्गात्पतेद्ध्रुवम्॥
यह मार्ग अघोर मार्ग है। भगवान् शिव को अघोरेश्वर कहा जाता है। वाम मार्ग को भगवान् शिव का मार्ग भी कहा जाता है।
यह मार्ग प्रकृति के कृतित्व निर्माण के लिए जाना जाता है, इसके माध्यम से बिना किसी भ्रम के पुनरोत्पादन, पुनर्निर्माण, विकास और क्रियात्मकता का मार्ग खुलता है।
भगवान शिव जो खुद वाम मार्ग का अनुयायी कहा जाता है। वे अर्धनारीश्वर हैं, जिसका अर्थ है - जो आधा स्त्री हो और आधा पुरुष हो।
इस पथ का अनुयायी सब झंझओं से मुक्त हो जाता है और अघोरी शिष्य कहा जाता है, जो साधना के बल पर भगवान शिव के समान हो जाता है।
महानिर्वाण तंत्र में कहा गया है-
पाशबद्धो भवेज्जीव: पाशमुक्त: सदाशिव:॥
ये भगवान् शिव ही भैरव रूप में प्रगट होते है।
भैरवोऽहम् शिवोऽहम्॥
अर्थात् मैं भैरव हूँ और मैं शिव हूं। शिव हमेशा गहराई में ध्यान केंद्रित हैं। शक्ति में स्थित हैं। बिना शक्ति के शिव  शव मात्र हैं। शक्ति को धारण करने के बाद इस मार्ग का शिष्य/अनुयायी भैरव के समान है जिसका अर्थ है वह खुद को शिव के रूप में ही स्थिति पा लेता है।
-चंद्र शेखर शास्त्री

शुक्रवार, मई 27, 2011

मेरे जिगर का खून...

मेरे जिगर का खून... 

कल उसने मुझे
झकझोर दिया
जब यादों के बगीचे में
बंजर हो गई जमीन पर
इक फूल
मुस्कुरा उठा।
वह ख्वाब था
या हकीकत
यह मैं जान न पाया।
मैं भौंचक्का था
दिग्भ्रमित सा
कि बंजर में फूल
कैसे खिल आया
मैं बगीचे के पास आया।
यादों को अश्रुजल से सींचा
और खिले हुए
फूल को देखकर
कुछ मैं भी खिला।
मैं खिलखिलाते
फूल की ओर बढ़ा
फूल मुझे देखकर
कुछ और खिला
और मुस्कुराया।
मैंने चाहा कि
इस फूल को ले चलूं
अपने साथ
कि यहां का नाशाद बंजर
इसे फिर सुखा देगा।
पर ज्यों ही मैंने
फूल की तरफ
हाथ बढ़ाया
वह भरभराकर
बिखर गया
उसी बंजर में
और मेरे हाथ में था
फूल का
कांटों भरा तना
जिसकी चुभन से
टपक रहा था
मेरे जिगर का खून...
-चंद्र शेखर शास्त्री 'वारिद'

गुरुवार, मई 05, 2011

जहां चमत्कार स्वयं नमस्कार करते हैं

बाबा कामराज जी महाराज 

मंदिर का प्राचीन शिलालेख

परमगुरुदेव श्री प्रेमानंद जी महाराज

गुरुदेव श्री बापू गोपलानंद जी महाराज

गुरुभाई श्री कैलाशानंद जी महाराज

ma dakshin kali mandir ka vihangam drishya

asli brahmkund

diksha ke samaya ishvariya satta se sakshatkar  karate hue gurudev
अनादि सिद्धपीठ श्री दक्षिण काली मन्दिर, हरिद्वार
जहां चमत्कार स्वयं नमस्कार करते हैं
हरिद्वार में नील पर्वत की तलहटी के कजरी वन में गंगा की नीलधारा के तट पर स्थित दस महाविद्याओं में प्रथम सिद्धपीठ मां दक्षिण काली के मन्दिर पर पूरे विश्व के महाकाली साधक पुत्र अपनी अभीष्ट साधना करते हैं, जिसका देवी भागवत में श्यामापीठ, योगिनी हृदयम्,काल कल्पतरु एवं कुलार्णव तंत्र में दक्षिण काली तथा रुद्रयामल तंत्र में कामराज कूट पीठ के नाम से वर्णन किया गया है तथा काली हृदय कवच में भगवान शिव ने उमा को श्यामापीठ में साधना का निर्देश दिया था।
चण्डीघाट की ३३ एकड़ भूमि में स्थित इस सिद्धपीठ में ७१वें पीठाधीश्वर श्रीमहंत कैलाशानंद ब्रह्मचारी के सानिध्य में निरन्तर अन्न क्षेत्र, गौशाला, वृद्ध सेवाश्रम, धर्मार्थ चिकित्सालय, वेद विद्यालय तथा संत सेवा के साथ ही नियमित अनुष्ठान एवं पूजा अर्चना होती है। गुप्त व प्रकट चारों नवरात्र में विशेष अनुष्ठानों का आयोजन होता है। प्रकट नवरात्रों में पूरे देश के भक्त विशेष कार्य सिद्धि अनुष्ठानों का आयोजन करते हैं, ज्येष्ठ शुक्ल सप्तमी के दिन बाबा कामराज जी का जन्मदिन बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है और श्रावण मास में प्रतिदिन महारुद्राभिषेक का आयोजन होता है। वाममार्गीय परम्परा की इस पीठ पर मां दक्षिण काली अनादि काल से विराजमान हैं, मां ने स्वयं बाबा कामराज को यहां मंदिर मे अपने विग्रह के मंदिर स्वरूप की स्थापना का आदेश दिया था, जिसके बाद दसवीं सदी में तंत्र सम्राट साक्षात् शिवस्वरूप बाबा कामराज महाराज ने १०८ नरमुण्डों पर मन्दिर की स्थापना की, ये नरमुंड़ उन लोगों के होते थे, जो पूर्व में ही मृत्यु को प्राप्त होकर नीलधारा में बहते हुए वहां आ जाते थे, बाबा कामराज उन्हें तंत्र क्रिया से जीवित करके उन्हें वस्तुस्थिति से अवगत कराते थे और उन्हें बलि के लिए सहमत करते थे, जो मृतक जीवित होने के बाद स्वयं को मां के चरणों में स्वयं को अर्पित कर देते थे, उनकी सहमति के बाद उनकी बलि होती थी, उसके बाद उनके शवों का अग्नि संस्कार होता था।
वाम मार्ग की इस विश्वविख्यात पीठ का मां की सिद्धकृपा से आशीर्वाद प्राप्तकर कश्मीर के राजा हरिसिंह, हरियाणा, पंजाब, बंगाल के राजघरानों के अतिरिक्त लखनऊ के नवाब तथा अकबर के परिवार ने भी मन्दिर का जीर्णोद्वार कराया था। उस समय यह मंदिर वर्तमान स्थान से सैंकड़ों फुट नीचे था। इन भक्तों ने समय समय पर इसे मन्दिर के गर्भगृह सहित ऊपर उठाकर मन्दिर पुनरुद्धार कर मां का आशीर्वाद लिया। इस सिद्धपीठ की विशेषता है कि आज भी रात्रि के तीसरे एवं चौथे प्रहर में मां काली एवं बाबा कामराज अपने भक्तों को दर्शन देकर उनका कल्याण करते हैं। दोनों प्रकट नवरात्रों में आयोजित होने वाले रात्रि कालीन अनुष्ठानों में सीमित मात्रा में वे भक्त ही सम्मिलित हो पाते हैं, जिन पर मां की कृपा होती है। शारदीय तथा वासंतीय नवरात्रों में मां काली की प्रेरणानुरूप अनवरत सहस्रचंडी अनुष्ठान, यज्ञ तथा महामृत्युञ्जय अनुष्ठान विश्व कल्याण की कामना से किया जाता है। विश्व की यह प्रथम सिद्धपीठ है जहां किसी यजमान से कोई दक्षिणायाचन नहीं किया जाता और भक्त को भी मां से कुछ मांगना नहीं पड़ता। मात्र माता के दरबार में हाजिरी देने से कल्याण हो जाता है। विशेष कार्य सिद्धि के लिये ही अनुष्ठानों का आयोजन होता है।
मन्दिर सतयुग कालीन प्राचीन ब्रह्मकुण्ड के पास स्थित है, जैसा कि पुराणों में वर्णित है कि गंगा की नीलधारा में ही ब्रह्मकुंड है। परन्तु अज्ञानतावश लोग हर की पैड़ी को ब्रह्मकुंड़ मान बैठते है। इस ब्रह्मकुंड को मच्छला कुण्ड के नाम से जाना जाता है। आल्हा की पत्नि मछला इसी कुण्ड में नियमित स्नान करती थी इसीलिये इसे मछला कुण्ड भी कहते हैं और इस कुण्ड में आज भी अथाह जलराशि है, अंग्रेज भी इस कुण्ड की थाह नहीं ले पाये तो उन्होंने बैराज बनाकर गंगनहर निकाली जहां वर्तमान ब्रह्मकुण्ड हरकी पैडी के नाम से प्रसिद्ध है। बाबा कामराज महाराज ने इसी ब्रह्मकुण्ड में आल्हा को स्नान करवाकर अमर होने का वरदान दिया था। समुद्र मंथन से निकले अमृत की बूंद गिरने से यहां ब्रह्मकुण्ड बना और भगवान भोलेनाथ ने समुद्र मंथन से निकले हलाहल को कण्ठ में धरण कर उसकी उष्णता समाप्त करने के लिये गंगा की जिस मुख्य धारा में स्नान किया, वह हलाहल विष के प्रभाव से नीली हो गई, गंगा की उसी धारा को नीलधारा कहते है जिसका जल आज भी नीले रंग का होता है। इसी नीलधारा के तट पर विराजमान होकर मां दक्षिण काली अपने भक्तों का कल्याण करती हैं।
श्री दक्षिण काली मन्दिर के अन्वेषक बाबा कामराज महाराज, जो अमरा  गुरु के नाम से विख्यात हुए, सन् १२१९ में ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष सप्तमी को मंदिर की देखरेख अपने शिष्य बाबा कालिकानंद जी महाराज को सौंपकर तीर्थाटन के लिए मन्दिर से अदृश्य हो गए। वे आठवें दीर्घजीवी हैं और मां के साथ मन्दिर परिसर में ही विद्यमान हैं। समय समय पर साधकों को उनके दर्शन होते रहते हैं। इस मन्दिर परिसर में स्थायी रूप से एक सफेद नाग-नागिन, एक काला नाग-नागिन तथा एक अजगर निवास करते हैं जो श्रावण मास पर्यन्त पूरे मन्दिर परिसर में भक्तों के साथ रहते हैं और स्पर्श के बाद भी काटते नहीं।
काली मन्दिर कलकत्ता के मुख्य सेवक स्वामी रामकृष्ण परमहंस के गुरु तोतापुरी महाराज ने इसी पीठ से तंत्र साधना प्रारम्भ की थी। गुरु शिष्य परंपरा के अनुसार देखते हैं तो बाबा कामराज जी महाराज के शिष्य हुए बाबा तोतापुरी जी महाराज और तोतापुरी जी महाराज के शिष्य थे स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी। तारा पीठ के संस्थापक तथा पूरे विश्व में तंत्र विद्या के मूल प्रवर्तक वामाखेपा ने भी बाबा कामराज से ही दीक्षा लेकर शमशान काली की स्थापना की। दिल्ली छतरपुर स्थित कात्यायिनी पीठ के संस्थापक बाबा नागपाल जी महाराज ने भी इसी स्थान पर साधना की थी तथा दतिया स्थित पीताम्बरा पीठ मां बंगलामुखी मंदिर के संस्थापक राष्ट्रीय स्वामी दतियावाले भी यहां साधना करते थे। आसाम में कामाख्यापीठ में दस महाविद्या की स्थापना करने से पूर्व अघोर तंत्रशिरोमणि बबलू खेपा ने भी बाबा कामराज से दीक्षा ली जबकि उन्होंने अन्तिम दीक्षा आल्हा को दी। सतना की मैहर स्थित शारदापीठ जिसे सरस्वती पीठ के नाम से जाना जाता है वहां आज भी ब्रह्ममुहूर्त में सर्वप्रथम आल्हा ही पूजा करता है इसके बाद वहां का पुजारी अन्य भक्तों को दर्शन पूजन की अनुमति देता है।
बाबा कामराज के बाद भगवती के उच्च साधक बाबा कालिकानंद जी महाराज, बाबा देवकीनंदन जी महाराज, बाबा रामचरित्रानंद जी महाराज, बाबा कपाली केशवानंद जी महाराज, अघोर सम्राट बाबा रामतीर्थानंद जी महाराज, बाबा स्वरुपानंद जी महाराज, बाबा रामरथानंद जी महाराज, बाबा प्रेमानंद जी महाराज आदि के बाद १९८४ से २००६ तक बाबा प्रेमानंद जी महाराज के शिष्य साक्षात् शिवस्वरूप श्री महंत बापू गोपालानंद जी ब्रह्मचारी जी महाराज के शिष्य स्वामी सुरेशानंद ब्रह्मचारी इस पीठ के पीठाधीश्वर रहे और उन्होंने ही अपने गुरुभाई बापू गोपालानंद ब्रह्मचारी जी महाराज के शिष्य श्रीमहंत कैलाशानंद ब्रह्मचारी का चयन किया जो २००६ से ७१वें पीठाधीश्वर के रूप में मां की सेवा कर रहे हैं।
वर्तमान में यह मंदिर अग्नि अखाड़े से संबंधित है और अग्नि अखाड़े के सभापति है 138 वर्षीय महान साधक साक्षात् शिव स्वरूप अमोघ शक्तिपात के ज्ञाता श्री 108 श्री महंत बापू गोपालानंद ब्रह्मचारी जी महाराज।

बुधवार, जनवरी 26, 2011

औपचारिकता बना गणतंत्र दिवस

हमने बेच दी है देश की गरिमा और संस्कृति

केवल झंडे और टोपियां बदलने की आजादी

चन्द्र शेखर शास्त्री
देश आज 62वां गणतंत्र दिवस मना रहा है,लेकिन स्वतंत्रता को लेकर उत्साह केवल स्कूलों, कॉलेजों, सरकारी कार्यालयों में झंडा फहराने,कुछ नेताओं के लफ्फा$जी भरे भाषणों तक ही सीमित है। यह उत्साह भी मात्र दिखावे का है क्योंकि कुछ औपचारिकताएं ही अब बुद्धिजीवी वर्ग और सरकारी अमले ने पाल रखी हैं। जिन्हें निभाना ही गणतंत्र दिवस मनाना है। देश में राष्टï्रविरोधी ताकतें आज या तो सत्ता में हैं अथवा सत्ता के बेहद करीब। देश के सभी राजनीतिक दल दलदल हो चुके हैं।

आजादी के आंदोलन को अपना आंदोलन बताने वाली कांगे्रस ने इस देश के लोगों पर 50 साल राज किया और जितना निचौड़ा जा सकता था, निचौड़ा। ये वही लोग हैं जो आजादी के लिए मिटने वाले शहीदों को कांग्रेसी बताते नहीं अघाते हैं,परंतु जिन अंग्रेजों से लड़ाई लडऩे का ये दावा करते हैं, आज उन्होंने उन्हीं अंग्रेजों की पुत्री को अपना सर्वस्व समर्पण कर रखा है। यह इस राष्टï्रीय पार्टी के लिए कितनी बड़ी शर्म की बात है,लेकिन कांग्रेसजन मैडम की निगाह में अपने नम्बर बढ़ाने के लिए जुगतबाजी करते रहते हैं। इन लोगों ने सिद्ध कर दिया कि इनका आजादी व शहीदों से प्रेम सिर्फ ढकोसला है, वास्तविकता तो यही है कि कांग्रेस का जन्मदाता भी एक अंग्रेज ही था और यह आज भी विदेशियों के हाथ की कठपुतली है। उन्होंने 50 वर्षों में मात्र गांधी को स्थापित किया और मेज के नीचे से गांधी छापते रहे।... और आज सभी पार्टियां अम्बेड़कर को स्थापित करने में जुटी हैं, वास्तव में कांग्रेस को गांधी जी से कोई लगाव नहीं था, क्योंकि वे तो कांग्रेस भंग करने को कहकर शहीद हो गये थे, लेकिन कांग्रेस ने जनता को गांधी जी की तस्वीर दिखाई और स्वयं गांधी ब्राण्ड करेंसी पर कुण्डली मारकर बैठ गई, यही कार्य आज सभी राजनीतिक दल अम्बेडकर की तस्वीर दिखाकर कर रहे हैं। डॉ. अम्बेड़कर को संविधान निर्माता कहा जा रहा है, जबकि इतिहास गवाह है कि 9 दिसम्बर 1946 को संविधान सभा का गठन हुआ, जिसका अध्यक्ष श्री सच्चिदानन्द सिंहा को बनाया गया, तत्पश्चात्ï 10 दिसम्बर सन्ï 1946 को संविधान निर्मात्री सभा का गठन हुआ, जिसका अध्यक्ष डॉ.राजेन्द्र प्रसाद को बनाया गया,संविधान निर्मात्री सभा में कई समितियां बनाई गईं, जिनमें से एक प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ.अंबेडकर थे, ऐसे में 2 वर्ष 11 माह 18 दिन में तैयार किए गए संविधान के निर्माण के लिए मात्र डॉ.अम्बेड़कर को श्रेय देना कहां तक उचित है। इसका जवाब किसी राजनेता के पास नहीं है।

देश स्वतंत्रता के 63 साल पूरे कर चुका है। हम अपने वतन में अपनी तरह से सांस लेने, रहने, सोने को आजाद हैं। परंतु यह भी उतना ही सच है कि हम अपने देश की सांस्कृतिक गरिमा के अनुरूप जीवन जीने की स्वतंत्रता को सपने में ही देख पाते हैं। हमें अंग्रेजों से तो मुक्ति मिली, परंतु अंग्रेजियत हमारी रग-रग में घर कर गयी, हमें गुलामी का पूरा अनुभव था। हजारों साल की परतंत्रता की बेडियां इतनी सुहानी लगने लगी थी कि उन्हें खोल देने पर भी हम स्वयं को मुक्त नहीं करना चाहते।

आजाद भारत का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है कि आजादी की आधी सदी तक पहुंचते-पहुंचते भारत की जड़ों में रिश्वतखोरी, भ्रष्टïाचार, अनैतिक राजनीति और अशिक्षा की घुनों ने डेरा जमा लिया है जो तत्व इन घुनों को हटाने में सक्षम थे, वही इन्हें संरक्षण प्रदान करने में लग गये। इस देश को पुन: गुलामी की ओर अग्रसर कर दिया गया।

किसी भी देश की स्वतंत्रता का सम्पूर्ण तात्पर्य मात्र राजनीतिक स्वतंत्रता ही नहीं है। केवल झंडे और टोपियां बदल जाने को हम आजादी नहीं कह सकते। आज आर्थिक युग है और हर युग में अर्थ का अपना विशेष महत्व हुआ करता है। क्योंकि भूखी जनता का पेट भाषण से नहीं भर सकता।

भारत सोने की चिडिय़ा कहा जाता था और आज भी है। फर्क सिर्फ ईमानदारी और नैतिकता का है, जिन्हें हमने श्वासहीन प्रक्रिया से बांधकर खंूटी पर टांग दिया है, इसलिए आज अपने अतीत का पुनरावलोकन न करके कुछ औपचारिकताओं को रास रंग के रंग में ढालकर जनता के सामने प्रस्तुत कर दिया और अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली।

आज शब्दों के मायने बदल रहे हैं। लोगों के दिलो दिमाग बदल रहे हैं, हवा और तरंगों तक का पश्चिमीकरण हो रहा है। भारतीयता की सुगंध तो जैसे समाप्त हो गई हो। आखिर क्या कारण है आजादी की आधी सदी भी न बीती थी कि इस देश को पुन: बहुराष्टï्रीयवाद के अंधेरे कुंए में धकेल दिया गया। क्या इस देश के ये रहनुमा नहीं जानते थे कि सैकड़ों साल पहले अंग्रेज यहां व्यापारियों के रूप में आये थे और धीरे-धीरे उनकी एकमात्र कम्पनी ईस्ट इंडिया कंपनी ने इस देश के आर्थिक श्रोतों पर अपना कब्जा बनाकर हमें गुलाम बना लिया था। आखिर क्या कारण है कि सब कुछ जानते हुए भी इन रहनुमाओं ने अपने देश में तथाकथित उदार नीति के तहत सैकड़ों बहुराष्टï्रीय कंपनियों को भारत में प्रवेश की अनुमति दे दी। एक ईस्ट इंडिया कंपनी ने हमें दो सौ साल से अधिक गुलाम बनाया और ये सैकड़ों ईस्ट इंडिया कंपनियां कितने वर्ष यहां राज करेंगी, इसका अंदाजा लगाना बड़ा कठिन है। सरकार की मेहरबानी से आज बहुराष्टï्रीय कंपनियां दूध, दही, गेहूं और अन्य ऐसे कई उद्योगों पर कब्जा जमाने लगी है जिनसे हमारी अर्थ व्यवस्था चरमरा जायेगी। कोई भी व्यापारी कहीं व्यापार करता है तो इसलिए नहीं कि नुकसान उठाएगा या जो कमाएगा आपको दे जाएगा। वह लाभ को अपने देश ले जाएगा और हमारे ये लैण्ड लार्ड भुखमरी के नशे में दम तोड़ते नजर आयेंगे।

इस दुर्दशा का जिम्मेदार कौन? एक स्वर, एक बात खासकर बड़े शहरों में सर्वत्र सुनाई दे रही है कि नई पीढ़ी बिगड़ती जा रही है, चरित्रहीन होती जा रही है, उसके सामने कोई नैतिक आदर्श नहीं हैं, वह दिशाहीन है, अपने कत्र्तव्यों को नहीं जानती, आदि-आदि। यह आरोप 1942-47 की पीढ़ी पर नही था वरन् उसने आजादी प्राप्ति के संघर्ष में भाग लिया था। वह अपने कत्र्तव्यों और दायित्वों को अच्छी तरह से समझती थी। अत: वह पीढ़ी इन आरोपों से मुक्त रही। उसके बाद दूसरी पीढ़ी का जन्म हुआ और चूंकि यह पीढ़ी 'आजाद भारतÓ में जन्मी थी, अत: स्वतन्त्र भारत की इस पीढ़ी को बहुत ही अच्छा बनना था। परन्तु इस पीढ़ी ने अपने निर्माण पर कोई ध्यान नहीं दिया।

आजादी के बाद मानो यह पीढ़ी उल्टे बिगड़ गई। आजादी पाकर मानो वह अपने सारे दायित्वों को भूल गई। उसने अपने चारित्रिक गुणों का विकास नहीं किया वरन् ह्रïास किया। आजादी के बाद जो नेता पैदा हुए, उन्होंने धीरे-धीरे सारी नैतिकताओं को त्याग दिया और वे येन-केन- प्रकारेण धन कमाने की होड़ में लग गये। नैतिक मूल्यों में गिरावट आई। दूसरी ओर सरकार ने चारों ओर धन का फैलाव किया, अपनी योजनाओं को उसने कर्ज लेकर आगे बढ़ाया और कर्ज की ही बदौलत योजनाएं पूरी करनी चाही। धन मानो देश में बह निकला। इसका यह परिणाम हुआ कि जो जहां बैठा था, वह वहां हर तरीके से धन बटोरने में ही लग गया और इस तरह भारत में आजादी के साथ भ्रष्टाचार का भी जन्म हुआ।

हालांकि आजादी के बाद देश ने चौतरफा विकास किया, पर विकास की इस प्रक्रिया में सर्वाधिक विकास 'भौतिकवादÓ का ही हुआ। टीवी रेडियो और सिनेमा ने उसे चारों ओर पफैला दिया। क्या आपने सोचा है कि दूरदर्शन पर चौबीस घण्टे जो विज्ञापन प्रसारित किये जाते हैं वे केवल मनुष्यों को भौतिकवाद की ओर नहीं बढ़ाते? इन दिनों विज्ञापनों के जरिये जहां एक ओर हमारी आवश्यकताएं बहुत बड़ी हैं, वहीं दूसरी ओर हमारा रहन-सहन भी ऊंचा हुआ है। जीवन स्तर को और अधिक ऊंचा हुआ है। जीवन स्तर को और अध्कि ऊंचा उठाने के प्रयास में हमारी आर्थिक पिपासा बढ़ती जा रही है। परन्तु इससे कुछ ही लोग लाभान्वित हुए हैं। आज जब कोई उचित साधनों से धन नहीं कमा पाता। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाता तो वह अनुचित साधनों से धन कमाने की ओर प्रवृत्त होता है। हमारे देश में अनुचित साधनों से धन कमाने को भी सरल बना दिया गया है। रोज खुलने वाले सट्टा, दैनिक व साप्ताहिक लाटरियां और बाजार में चलने वाले तरह-तरह के जुए से मनुष्यों को आसानी से धन मिल जाता है और सरकार खुद इस तरह के अनैतिक कार्यों की न सिपर्फ हिमायती बनी है, बल्कि इन्हें पूरा संरक्षण भी दे रही हैं। पर यह भी सच है कि ज्यादातर लोग इन्हीं की वजह से बर्बाद भी होते हैं। यह सच है कि भारत कभी भी भौतिकवाद की होड़ में शामिल नहीं रहा। बल्कि भारतवासी आध्यात्मिक विकास की दौड़ में, चरित्र निर्माण की दौड़ में सदा आगे रहा है। किन्तु पिछले कुछ समय में भारत भी विदेशों के समान भौतिकवादी युग में पहुंच गया है। जिस देश में कभी ''मन को सजाओÓ 'चलता था, आज वहां 'तन को सजाओÓ 'घर को सजाओÓ की मानो अखिल भारतीय खुली स्पर्धा चल रही है।

कस्बों, शहरों और महानगरों में आज पति-पत्नी दोनों ही नौकरियों में लगे रहते हैं या खुद का कोई व्यवसाय कर रहे हैं। ऐसे में घर में बच्चों का ही 'राजÓ रह गया है। उन्होंने रेडियो सुनना, लम्बे समय तक टीवी देखना, गीतों के कैसेट बजाना, चाय, कॉफी पीना या दिन भर फिल्में देखना ही अपना काम बना लिया है। उच्च वर्ग ही नहीं बल्कि आज तो मध्यम वर्गीय परिवारों में भी माना जाने लगा है कि घर में कम से कम एक डीवीडी प्लेयर तो जरूर होना ही चाहिए। सच कहें तो आज धन की आधुनिकता और लोलुपता ही हमसे पता नहीं क्या-क्या करा रही हैं? युवा ही बदले हैं, ऐसा नहीं है, बल्कि आज हमारे वृद्ध (माता-पिता हमसे निवेदन करते हैं कि टेप पर कोई भजन लगा दी। वे उसे सुनते हैं पर खुद भजन नहीं करते। यह सब देख-सुनकर कभी-कभी हमारे मन में यह विचार भी आता है कि मानो किसी के मरने पर हम स्वयं न रोयें बल्कि 'रोने वालोंÓ को किराये पर ही ले आयें और रुदन का काम हमारी जगह वही करें। आज किसी भी बच्चे से पूछ लीजिए, वह आपके समक्ष पांच या दस महापुरुषों के नाम नहीं गिन पायेगा। क्रांतिकारियों के नाम तो वे जानतें ही नहीं। हां 8-10 फिल्मों के नाम आपको जरूर बता देगा और वे होंगे 'मार डालूंगा, फाड़ डालूंगा, आग लगा दूंगा, जलाकर रख दूंगा, विद्रोह, दरिन्दा आदि।

जब परिवार के साथ हम टीवी देखते हैं तो निश्चित ही अनेक बार हमें उस पर दिखाये जाने वाले दृश्यों को देखकर शर्म महसूस होती है। माता-पिता और बच्चों या बहू-बेटियों के साथ बैठकर देखी जा सकने वाली फिल्में तो आज रही ही नहीं। वैसे आजकल सामूहिक रूप से शायद ही कोई शर्म महसूस करे, परन्तु व्यक्तिगत रूप से हमें शर्म महसूस होती है। आज हमने अपने बच्चों के लिए सभी सुख-सुविधाएं तो जुटा दी हैं, परन्तु उनके चारित्रिक विकास का कोई मार्ग अथवा उपाय नहीं खोजा है। न हम आज के किसी नेता का उन्हें उदाहरण दे सकते हैं कि अमुक से कुछ सीखो और न ही खुद अपना उदाहरण दे सकते हैं कि हमसे सीखो।

आज हम आरामप्रद नहीं, विलासिता का जीवन जीना चाहते हैं और हम उसके इतने आदी हो गये हैं कि आलसी होकर रह गये हैं। आपने देखा होगा कि शादी-विवाह में अब युवा काम नहीं करते। जिसका कोई व्यक्तित्व नहीं है वह भी कोट पैन्ट और टाई पहनकर खड़ा हो जाता है और किसी नौकर से पानी मांगता हैं। कहीं ऐसा न हो कि कल ऐसे नौकर भी आने लगें जो उन्हें खुद चम्मच से खिलाएं।

आजकल टीवी पर दिखाए जाने वाले तरह तरह के विज्ञापन और उनके बोल हमारे जीवन के अंग बन गये हैं। टीवी पर अपना विज्ञापन देने वाली एक कम्पनी ने 369 करोड़ का बिजनेस करने का लक्ष्य निर्धारित किया था, किन्तु एक ही वर्ष में विज्ञापनों की बदौलत उसने 720 करोड़ रुपये बिजनेस कर दिखाया। निश्चित ही विज्ञापनों के जरिये उसने लोगों को बता दिया था कि विज्ञापन में कितनी शक्ति है?

आजकल करीब-करीब हर राज्य में लाटरियों की इतनी धूम मची है कि मां-बाप, बेटा-बेटी, पत्नी, बहू और बच्चे सभी बिना किसी हिचक के एक-दूसरे से लाटरियों के नम्बर पूछ रहे हैं। सड़कें रोज शाम को टिकटों से पट जाती हैं और धनवान बनने के चक्कर में लोग रोज अनैतिक बन रहे हैं। लाटरी जुआ है, यह हम भूल बैठे हैं और एक-दूसरे से लाटरी का नम्बर निकलने की दुआ कर रहे हैं, बधाई दे रहे हैं। रही सही कसर एमसीएक्स ने पूरी कर दी है। अब हमारी दाल रोटी भी सट्टïेबाजों की निगाह में है।

अति धनवान हो या मध्यमवर्गीय गरीब हो या अत्यन्त गरीब, आज शराब का स्वाद सभी जानते हैं। यदि उन्होंने भरपेट नहीं पी है तो चखी अवश्य है। कई परिवारों में बाप-बेटा एक साथ मिलकर अध्ध या पव्वा की बोतलें खोलते देखे जा सकते हैं। कहते हैं जब शर्म मिट जाती है तब सब कुछ नष्ट हो जाता है। शिक्षक विद्यार्थियों के हाथों सिगरेट, पान, बीड़ी गुटखा इत्यादि मंगवाते नजर आते हैं।

कहा गया है कि यदि किसी देश को नष्ट करना हो तो उसकी युवा पीढ़ी को बिगाड़ दो, देश का भविष्य अपने आप तबाह हो जायेगा। किसी समय पूरा चीन अफीम की गोद में आ गया था। यदि हम भी ''मौज करो और जिओÓÓ का नारा यूं ही देते रहे तो हमारे बुरे दिन आना भी सुनिश्चित है।