बुधवार, जनवरी 26, 2011

औपचारिकता बना गणतंत्र दिवस

हमने बेच दी है देश की गरिमा और संस्कृति

केवल झंडे और टोपियां बदलने की आजादी

चन्द्र शेखर शास्त्री
देश आज 62वां गणतंत्र दिवस मना रहा है,लेकिन स्वतंत्रता को लेकर उत्साह केवल स्कूलों, कॉलेजों, सरकारी कार्यालयों में झंडा फहराने,कुछ नेताओं के लफ्फा$जी भरे भाषणों तक ही सीमित है। यह उत्साह भी मात्र दिखावे का है क्योंकि कुछ औपचारिकताएं ही अब बुद्धिजीवी वर्ग और सरकारी अमले ने पाल रखी हैं। जिन्हें निभाना ही गणतंत्र दिवस मनाना है। देश में राष्टï्रविरोधी ताकतें आज या तो सत्ता में हैं अथवा सत्ता के बेहद करीब। देश के सभी राजनीतिक दल दलदल हो चुके हैं।

आजादी के आंदोलन को अपना आंदोलन बताने वाली कांगे्रस ने इस देश के लोगों पर 50 साल राज किया और जितना निचौड़ा जा सकता था, निचौड़ा। ये वही लोग हैं जो आजादी के लिए मिटने वाले शहीदों को कांग्रेसी बताते नहीं अघाते हैं,परंतु जिन अंग्रेजों से लड़ाई लडऩे का ये दावा करते हैं, आज उन्होंने उन्हीं अंग्रेजों की पुत्री को अपना सर्वस्व समर्पण कर रखा है। यह इस राष्टï्रीय पार्टी के लिए कितनी बड़ी शर्म की बात है,लेकिन कांग्रेसजन मैडम की निगाह में अपने नम्बर बढ़ाने के लिए जुगतबाजी करते रहते हैं। इन लोगों ने सिद्ध कर दिया कि इनका आजादी व शहीदों से प्रेम सिर्फ ढकोसला है, वास्तविकता तो यही है कि कांग्रेस का जन्मदाता भी एक अंग्रेज ही था और यह आज भी विदेशियों के हाथ की कठपुतली है। उन्होंने 50 वर्षों में मात्र गांधी को स्थापित किया और मेज के नीचे से गांधी छापते रहे।... और आज सभी पार्टियां अम्बेड़कर को स्थापित करने में जुटी हैं, वास्तव में कांग्रेस को गांधी जी से कोई लगाव नहीं था, क्योंकि वे तो कांग्रेस भंग करने को कहकर शहीद हो गये थे, लेकिन कांग्रेस ने जनता को गांधी जी की तस्वीर दिखाई और स्वयं गांधी ब्राण्ड करेंसी पर कुण्डली मारकर बैठ गई, यही कार्य आज सभी राजनीतिक दल अम्बेडकर की तस्वीर दिखाकर कर रहे हैं। डॉ. अम्बेड़कर को संविधान निर्माता कहा जा रहा है, जबकि इतिहास गवाह है कि 9 दिसम्बर 1946 को संविधान सभा का गठन हुआ, जिसका अध्यक्ष श्री सच्चिदानन्द सिंहा को बनाया गया, तत्पश्चात्ï 10 दिसम्बर सन्ï 1946 को संविधान निर्मात्री सभा का गठन हुआ, जिसका अध्यक्ष डॉ.राजेन्द्र प्रसाद को बनाया गया,संविधान निर्मात्री सभा में कई समितियां बनाई गईं, जिनमें से एक प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ.अंबेडकर थे, ऐसे में 2 वर्ष 11 माह 18 दिन में तैयार किए गए संविधान के निर्माण के लिए मात्र डॉ.अम्बेड़कर को श्रेय देना कहां तक उचित है। इसका जवाब किसी राजनेता के पास नहीं है।

देश स्वतंत्रता के 63 साल पूरे कर चुका है। हम अपने वतन में अपनी तरह से सांस लेने, रहने, सोने को आजाद हैं। परंतु यह भी उतना ही सच है कि हम अपने देश की सांस्कृतिक गरिमा के अनुरूप जीवन जीने की स्वतंत्रता को सपने में ही देख पाते हैं। हमें अंग्रेजों से तो मुक्ति मिली, परंतु अंग्रेजियत हमारी रग-रग में घर कर गयी, हमें गुलामी का पूरा अनुभव था। हजारों साल की परतंत्रता की बेडियां इतनी सुहानी लगने लगी थी कि उन्हें खोल देने पर भी हम स्वयं को मुक्त नहीं करना चाहते।

आजाद भारत का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है कि आजादी की आधी सदी तक पहुंचते-पहुंचते भारत की जड़ों में रिश्वतखोरी, भ्रष्टïाचार, अनैतिक राजनीति और अशिक्षा की घुनों ने डेरा जमा लिया है जो तत्व इन घुनों को हटाने में सक्षम थे, वही इन्हें संरक्षण प्रदान करने में लग गये। इस देश को पुन: गुलामी की ओर अग्रसर कर दिया गया।

किसी भी देश की स्वतंत्रता का सम्पूर्ण तात्पर्य मात्र राजनीतिक स्वतंत्रता ही नहीं है। केवल झंडे और टोपियां बदल जाने को हम आजादी नहीं कह सकते। आज आर्थिक युग है और हर युग में अर्थ का अपना विशेष महत्व हुआ करता है। क्योंकि भूखी जनता का पेट भाषण से नहीं भर सकता।

भारत सोने की चिडिय़ा कहा जाता था और आज भी है। फर्क सिर्फ ईमानदारी और नैतिकता का है, जिन्हें हमने श्वासहीन प्रक्रिया से बांधकर खंूटी पर टांग दिया है, इसलिए आज अपने अतीत का पुनरावलोकन न करके कुछ औपचारिकताओं को रास रंग के रंग में ढालकर जनता के सामने प्रस्तुत कर दिया और अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली।

आज शब्दों के मायने बदल रहे हैं। लोगों के दिलो दिमाग बदल रहे हैं, हवा और तरंगों तक का पश्चिमीकरण हो रहा है। भारतीयता की सुगंध तो जैसे समाप्त हो गई हो। आखिर क्या कारण है आजादी की आधी सदी भी न बीती थी कि इस देश को पुन: बहुराष्टï्रीयवाद के अंधेरे कुंए में धकेल दिया गया। क्या इस देश के ये रहनुमा नहीं जानते थे कि सैकड़ों साल पहले अंग्रेज यहां व्यापारियों के रूप में आये थे और धीरे-धीरे उनकी एकमात्र कम्पनी ईस्ट इंडिया कंपनी ने इस देश के आर्थिक श्रोतों पर अपना कब्जा बनाकर हमें गुलाम बना लिया था। आखिर क्या कारण है कि सब कुछ जानते हुए भी इन रहनुमाओं ने अपने देश में तथाकथित उदार नीति के तहत सैकड़ों बहुराष्टï्रीय कंपनियों को भारत में प्रवेश की अनुमति दे दी। एक ईस्ट इंडिया कंपनी ने हमें दो सौ साल से अधिक गुलाम बनाया और ये सैकड़ों ईस्ट इंडिया कंपनियां कितने वर्ष यहां राज करेंगी, इसका अंदाजा लगाना बड़ा कठिन है। सरकार की मेहरबानी से आज बहुराष्टï्रीय कंपनियां दूध, दही, गेहूं और अन्य ऐसे कई उद्योगों पर कब्जा जमाने लगी है जिनसे हमारी अर्थ व्यवस्था चरमरा जायेगी। कोई भी व्यापारी कहीं व्यापार करता है तो इसलिए नहीं कि नुकसान उठाएगा या जो कमाएगा आपको दे जाएगा। वह लाभ को अपने देश ले जाएगा और हमारे ये लैण्ड लार्ड भुखमरी के नशे में दम तोड़ते नजर आयेंगे।

इस दुर्दशा का जिम्मेदार कौन? एक स्वर, एक बात खासकर बड़े शहरों में सर्वत्र सुनाई दे रही है कि नई पीढ़ी बिगड़ती जा रही है, चरित्रहीन होती जा रही है, उसके सामने कोई नैतिक आदर्श नहीं हैं, वह दिशाहीन है, अपने कत्र्तव्यों को नहीं जानती, आदि-आदि। यह आरोप 1942-47 की पीढ़ी पर नही था वरन् उसने आजादी प्राप्ति के संघर्ष में भाग लिया था। वह अपने कत्र्तव्यों और दायित्वों को अच्छी तरह से समझती थी। अत: वह पीढ़ी इन आरोपों से मुक्त रही। उसके बाद दूसरी पीढ़ी का जन्म हुआ और चूंकि यह पीढ़ी 'आजाद भारतÓ में जन्मी थी, अत: स्वतन्त्र भारत की इस पीढ़ी को बहुत ही अच्छा बनना था। परन्तु इस पीढ़ी ने अपने निर्माण पर कोई ध्यान नहीं दिया।

आजादी के बाद मानो यह पीढ़ी उल्टे बिगड़ गई। आजादी पाकर मानो वह अपने सारे दायित्वों को भूल गई। उसने अपने चारित्रिक गुणों का विकास नहीं किया वरन् ह्रïास किया। आजादी के बाद जो नेता पैदा हुए, उन्होंने धीरे-धीरे सारी नैतिकताओं को त्याग दिया और वे येन-केन- प्रकारेण धन कमाने की होड़ में लग गये। नैतिक मूल्यों में गिरावट आई। दूसरी ओर सरकार ने चारों ओर धन का फैलाव किया, अपनी योजनाओं को उसने कर्ज लेकर आगे बढ़ाया और कर्ज की ही बदौलत योजनाएं पूरी करनी चाही। धन मानो देश में बह निकला। इसका यह परिणाम हुआ कि जो जहां बैठा था, वह वहां हर तरीके से धन बटोरने में ही लग गया और इस तरह भारत में आजादी के साथ भ्रष्टाचार का भी जन्म हुआ।

हालांकि आजादी के बाद देश ने चौतरफा विकास किया, पर विकास की इस प्रक्रिया में सर्वाधिक विकास 'भौतिकवादÓ का ही हुआ। टीवी रेडियो और सिनेमा ने उसे चारों ओर पफैला दिया। क्या आपने सोचा है कि दूरदर्शन पर चौबीस घण्टे जो विज्ञापन प्रसारित किये जाते हैं वे केवल मनुष्यों को भौतिकवाद की ओर नहीं बढ़ाते? इन दिनों विज्ञापनों के जरिये जहां एक ओर हमारी आवश्यकताएं बहुत बड़ी हैं, वहीं दूसरी ओर हमारा रहन-सहन भी ऊंचा हुआ है। जीवन स्तर को और अधिक ऊंचा हुआ है। जीवन स्तर को और अध्कि ऊंचा उठाने के प्रयास में हमारी आर्थिक पिपासा बढ़ती जा रही है। परन्तु इससे कुछ ही लोग लाभान्वित हुए हैं। आज जब कोई उचित साधनों से धन नहीं कमा पाता। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाता तो वह अनुचित साधनों से धन कमाने की ओर प्रवृत्त होता है। हमारे देश में अनुचित साधनों से धन कमाने को भी सरल बना दिया गया है। रोज खुलने वाले सट्टा, दैनिक व साप्ताहिक लाटरियां और बाजार में चलने वाले तरह-तरह के जुए से मनुष्यों को आसानी से धन मिल जाता है और सरकार खुद इस तरह के अनैतिक कार्यों की न सिपर्फ हिमायती बनी है, बल्कि इन्हें पूरा संरक्षण भी दे रही हैं। पर यह भी सच है कि ज्यादातर लोग इन्हीं की वजह से बर्बाद भी होते हैं। यह सच है कि भारत कभी भी भौतिकवाद की होड़ में शामिल नहीं रहा। बल्कि भारतवासी आध्यात्मिक विकास की दौड़ में, चरित्र निर्माण की दौड़ में सदा आगे रहा है। किन्तु पिछले कुछ समय में भारत भी विदेशों के समान भौतिकवादी युग में पहुंच गया है। जिस देश में कभी ''मन को सजाओÓ 'चलता था, आज वहां 'तन को सजाओÓ 'घर को सजाओÓ की मानो अखिल भारतीय खुली स्पर्धा चल रही है।

कस्बों, शहरों और महानगरों में आज पति-पत्नी दोनों ही नौकरियों में लगे रहते हैं या खुद का कोई व्यवसाय कर रहे हैं। ऐसे में घर में बच्चों का ही 'राजÓ रह गया है। उन्होंने रेडियो सुनना, लम्बे समय तक टीवी देखना, गीतों के कैसेट बजाना, चाय, कॉफी पीना या दिन भर फिल्में देखना ही अपना काम बना लिया है। उच्च वर्ग ही नहीं बल्कि आज तो मध्यम वर्गीय परिवारों में भी माना जाने लगा है कि घर में कम से कम एक डीवीडी प्लेयर तो जरूर होना ही चाहिए। सच कहें तो आज धन की आधुनिकता और लोलुपता ही हमसे पता नहीं क्या-क्या करा रही हैं? युवा ही बदले हैं, ऐसा नहीं है, बल्कि आज हमारे वृद्ध (माता-पिता हमसे निवेदन करते हैं कि टेप पर कोई भजन लगा दी। वे उसे सुनते हैं पर खुद भजन नहीं करते। यह सब देख-सुनकर कभी-कभी हमारे मन में यह विचार भी आता है कि मानो किसी के मरने पर हम स्वयं न रोयें बल्कि 'रोने वालोंÓ को किराये पर ही ले आयें और रुदन का काम हमारी जगह वही करें। आज किसी भी बच्चे से पूछ लीजिए, वह आपके समक्ष पांच या दस महापुरुषों के नाम नहीं गिन पायेगा। क्रांतिकारियों के नाम तो वे जानतें ही नहीं। हां 8-10 फिल्मों के नाम आपको जरूर बता देगा और वे होंगे 'मार डालूंगा, फाड़ डालूंगा, आग लगा दूंगा, जलाकर रख दूंगा, विद्रोह, दरिन्दा आदि।

जब परिवार के साथ हम टीवी देखते हैं तो निश्चित ही अनेक बार हमें उस पर दिखाये जाने वाले दृश्यों को देखकर शर्म महसूस होती है। माता-पिता और बच्चों या बहू-बेटियों के साथ बैठकर देखी जा सकने वाली फिल्में तो आज रही ही नहीं। वैसे आजकल सामूहिक रूप से शायद ही कोई शर्म महसूस करे, परन्तु व्यक्तिगत रूप से हमें शर्म महसूस होती है। आज हमने अपने बच्चों के लिए सभी सुख-सुविधाएं तो जुटा दी हैं, परन्तु उनके चारित्रिक विकास का कोई मार्ग अथवा उपाय नहीं खोजा है। न हम आज के किसी नेता का उन्हें उदाहरण दे सकते हैं कि अमुक से कुछ सीखो और न ही खुद अपना उदाहरण दे सकते हैं कि हमसे सीखो।

आज हम आरामप्रद नहीं, विलासिता का जीवन जीना चाहते हैं और हम उसके इतने आदी हो गये हैं कि आलसी होकर रह गये हैं। आपने देखा होगा कि शादी-विवाह में अब युवा काम नहीं करते। जिसका कोई व्यक्तित्व नहीं है वह भी कोट पैन्ट और टाई पहनकर खड़ा हो जाता है और किसी नौकर से पानी मांगता हैं। कहीं ऐसा न हो कि कल ऐसे नौकर भी आने लगें जो उन्हें खुद चम्मच से खिलाएं।

आजकल टीवी पर दिखाए जाने वाले तरह तरह के विज्ञापन और उनके बोल हमारे जीवन के अंग बन गये हैं। टीवी पर अपना विज्ञापन देने वाली एक कम्पनी ने 369 करोड़ का बिजनेस करने का लक्ष्य निर्धारित किया था, किन्तु एक ही वर्ष में विज्ञापनों की बदौलत उसने 720 करोड़ रुपये बिजनेस कर दिखाया। निश्चित ही विज्ञापनों के जरिये उसने लोगों को बता दिया था कि विज्ञापन में कितनी शक्ति है?

आजकल करीब-करीब हर राज्य में लाटरियों की इतनी धूम मची है कि मां-बाप, बेटा-बेटी, पत्नी, बहू और बच्चे सभी बिना किसी हिचक के एक-दूसरे से लाटरियों के नम्बर पूछ रहे हैं। सड़कें रोज शाम को टिकटों से पट जाती हैं और धनवान बनने के चक्कर में लोग रोज अनैतिक बन रहे हैं। लाटरी जुआ है, यह हम भूल बैठे हैं और एक-दूसरे से लाटरी का नम्बर निकलने की दुआ कर रहे हैं, बधाई दे रहे हैं। रही सही कसर एमसीएक्स ने पूरी कर दी है। अब हमारी दाल रोटी भी सट्टïेबाजों की निगाह में है।

अति धनवान हो या मध्यमवर्गीय गरीब हो या अत्यन्त गरीब, आज शराब का स्वाद सभी जानते हैं। यदि उन्होंने भरपेट नहीं पी है तो चखी अवश्य है। कई परिवारों में बाप-बेटा एक साथ मिलकर अध्ध या पव्वा की बोतलें खोलते देखे जा सकते हैं। कहते हैं जब शर्म मिट जाती है तब सब कुछ नष्ट हो जाता है। शिक्षक विद्यार्थियों के हाथों सिगरेट, पान, बीड़ी गुटखा इत्यादि मंगवाते नजर आते हैं।

कहा गया है कि यदि किसी देश को नष्ट करना हो तो उसकी युवा पीढ़ी को बिगाड़ दो, देश का भविष्य अपने आप तबाह हो जायेगा। किसी समय पूरा चीन अफीम की गोद में आ गया था। यदि हम भी ''मौज करो और जिओÓÓ का नारा यूं ही देते रहे तो हमारे बुरे दिन आना भी सुनिश्चित है।