गुरुवार, मई 05, 2011

जहां चमत्कार स्वयं नमस्कार करते हैं

बाबा कामराज जी महाराज 

मंदिर का प्राचीन शिलालेख

परमगुरुदेव श्री प्रेमानंद जी महाराज

गुरुदेव श्री बापू गोपलानंद जी महाराज

गुरुभाई श्री कैलाशानंद जी महाराज

ma dakshin kali mandir ka vihangam drishya

asli brahmkund

diksha ke samaya ishvariya satta se sakshatkar  karate hue gurudev
अनादि सिद्धपीठ श्री दक्षिण काली मन्दिर, हरिद्वार
जहां चमत्कार स्वयं नमस्कार करते हैं
हरिद्वार में नील पर्वत की तलहटी के कजरी वन में गंगा की नीलधारा के तट पर स्थित दस महाविद्याओं में प्रथम सिद्धपीठ मां दक्षिण काली के मन्दिर पर पूरे विश्व के महाकाली साधक पुत्र अपनी अभीष्ट साधना करते हैं, जिसका देवी भागवत में श्यामापीठ, योगिनी हृदयम्,काल कल्पतरु एवं कुलार्णव तंत्र में दक्षिण काली तथा रुद्रयामल तंत्र में कामराज कूट पीठ के नाम से वर्णन किया गया है तथा काली हृदय कवच में भगवान शिव ने उमा को श्यामापीठ में साधना का निर्देश दिया था।
चण्डीघाट की ३३ एकड़ भूमि में स्थित इस सिद्धपीठ में ७१वें पीठाधीश्वर श्रीमहंत कैलाशानंद ब्रह्मचारी के सानिध्य में निरन्तर अन्न क्षेत्र, गौशाला, वृद्ध सेवाश्रम, धर्मार्थ चिकित्सालय, वेद विद्यालय तथा संत सेवा के साथ ही नियमित अनुष्ठान एवं पूजा अर्चना होती है। गुप्त व प्रकट चारों नवरात्र में विशेष अनुष्ठानों का आयोजन होता है। प्रकट नवरात्रों में पूरे देश के भक्त विशेष कार्य सिद्धि अनुष्ठानों का आयोजन करते हैं, ज्येष्ठ शुक्ल सप्तमी के दिन बाबा कामराज जी का जन्मदिन बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है और श्रावण मास में प्रतिदिन महारुद्राभिषेक का आयोजन होता है। वाममार्गीय परम्परा की इस पीठ पर मां दक्षिण काली अनादि काल से विराजमान हैं, मां ने स्वयं बाबा कामराज को यहां मंदिर मे अपने विग्रह के मंदिर स्वरूप की स्थापना का आदेश दिया था, जिसके बाद दसवीं सदी में तंत्र सम्राट साक्षात् शिवस्वरूप बाबा कामराज महाराज ने १०८ नरमुण्डों पर मन्दिर की स्थापना की, ये नरमुंड़ उन लोगों के होते थे, जो पूर्व में ही मृत्यु को प्राप्त होकर नीलधारा में बहते हुए वहां आ जाते थे, बाबा कामराज उन्हें तंत्र क्रिया से जीवित करके उन्हें वस्तुस्थिति से अवगत कराते थे और उन्हें बलि के लिए सहमत करते थे, जो मृतक जीवित होने के बाद स्वयं को मां के चरणों में स्वयं को अर्पित कर देते थे, उनकी सहमति के बाद उनकी बलि होती थी, उसके बाद उनके शवों का अग्नि संस्कार होता था।
वाम मार्ग की इस विश्वविख्यात पीठ का मां की सिद्धकृपा से आशीर्वाद प्राप्तकर कश्मीर के राजा हरिसिंह, हरियाणा, पंजाब, बंगाल के राजघरानों के अतिरिक्त लखनऊ के नवाब तथा अकबर के परिवार ने भी मन्दिर का जीर्णोद्वार कराया था। उस समय यह मंदिर वर्तमान स्थान से सैंकड़ों फुट नीचे था। इन भक्तों ने समय समय पर इसे मन्दिर के गर्भगृह सहित ऊपर उठाकर मन्दिर पुनरुद्धार कर मां का आशीर्वाद लिया। इस सिद्धपीठ की विशेषता है कि आज भी रात्रि के तीसरे एवं चौथे प्रहर में मां काली एवं बाबा कामराज अपने भक्तों को दर्शन देकर उनका कल्याण करते हैं। दोनों प्रकट नवरात्रों में आयोजित होने वाले रात्रि कालीन अनुष्ठानों में सीमित मात्रा में वे भक्त ही सम्मिलित हो पाते हैं, जिन पर मां की कृपा होती है। शारदीय तथा वासंतीय नवरात्रों में मां काली की प्रेरणानुरूप अनवरत सहस्रचंडी अनुष्ठान, यज्ञ तथा महामृत्युञ्जय अनुष्ठान विश्व कल्याण की कामना से किया जाता है। विश्व की यह प्रथम सिद्धपीठ है जहां किसी यजमान से कोई दक्षिणायाचन नहीं किया जाता और भक्त को भी मां से कुछ मांगना नहीं पड़ता। मात्र माता के दरबार में हाजिरी देने से कल्याण हो जाता है। विशेष कार्य सिद्धि के लिये ही अनुष्ठानों का आयोजन होता है।
मन्दिर सतयुग कालीन प्राचीन ब्रह्मकुण्ड के पास स्थित है, जैसा कि पुराणों में वर्णित है कि गंगा की नीलधारा में ही ब्रह्मकुंड है। परन्तु अज्ञानतावश लोग हर की पैड़ी को ब्रह्मकुंड़ मान बैठते है। इस ब्रह्मकुंड को मच्छला कुण्ड के नाम से जाना जाता है। आल्हा की पत्नि मछला इसी कुण्ड में नियमित स्नान करती थी इसीलिये इसे मछला कुण्ड भी कहते हैं और इस कुण्ड में आज भी अथाह जलराशि है, अंग्रेज भी इस कुण्ड की थाह नहीं ले पाये तो उन्होंने बैराज बनाकर गंगनहर निकाली जहां वर्तमान ब्रह्मकुण्ड हरकी पैडी के नाम से प्रसिद्ध है। बाबा कामराज महाराज ने इसी ब्रह्मकुण्ड में आल्हा को स्नान करवाकर अमर होने का वरदान दिया था। समुद्र मंथन से निकले अमृत की बूंद गिरने से यहां ब्रह्मकुण्ड बना और भगवान भोलेनाथ ने समुद्र मंथन से निकले हलाहल को कण्ठ में धरण कर उसकी उष्णता समाप्त करने के लिये गंगा की जिस मुख्य धारा में स्नान किया, वह हलाहल विष के प्रभाव से नीली हो गई, गंगा की उसी धारा को नीलधारा कहते है जिसका जल आज भी नीले रंग का होता है। इसी नीलधारा के तट पर विराजमान होकर मां दक्षिण काली अपने भक्तों का कल्याण करती हैं।
श्री दक्षिण काली मन्दिर के अन्वेषक बाबा कामराज महाराज, जो अमरा  गुरु के नाम से विख्यात हुए, सन् १२१९ में ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष सप्तमी को मंदिर की देखरेख अपने शिष्य बाबा कालिकानंद जी महाराज को सौंपकर तीर्थाटन के लिए मन्दिर से अदृश्य हो गए। वे आठवें दीर्घजीवी हैं और मां के साथ मन्दिर परिसर में ही विद्यमान हैं। समय समय पर साधकों को उनके दर्शन होते रहते हैं। इस मन्दिर परिसर में स्थायी रूप से एक सफेद नाग-नागिन, एक काला नाग-नागिन तथा एक अजगर निवास करते हैं जो श्रावण मास पर्यन्त पूरे मन्दिर परिसर में भक्तों के साथ रहते हैं और स्पर्श के बाद भी काटते नहीं।
काली मन्दिर कलकत्ता के मुख्य सेवक स्वामी रामकृष्ण परमहंस के गुरु तोतापुरी महाराज ने इसी पीठ से तंत्र साधना प्रारम्भ की थी। गुरु शिष्य परंपरा के अनुसार देखते हैं तो बाबा कामराज जी महाराज के शिष्य हुए बाबा तोतापुरी जी महाराज और तोतापुरी जी महाराज के शिष्य थे स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी। तारा पीठ के संस्थापक तथा पूरे विश्व में तंत्र विद्या के मूल प्रवर्तक वामाखेपा ने भी बाबा कामराज से ही दीक्षा लेकर शमशान काली की स्थापना की। दिल्ली छतरपुर स्थित कात्यायिनी पीठ के संस्थापक बाबा नागपाल जी महाराज ने भी इसी स्थान पर साधना की थी तथा दतिया स्थित पीताम्बरा पीठ मां बंगलामुखी मंदिर के संस्थापक राष्ट्रीय स्वामी दतियावाले भी यहां साधना करते थे। आसाम में कामाख्यापीठ में दस महाविद्या की स्थापना करने से पूर्व अघोर तंत्रशिरोमणि बबलू खेपा ने भी बाबा कामराज से दीक्षा ली जबकि उन्होंने अन्तिम दीक्षा आल्हा को दी। सतना की मैहर स्थित शारदापीठ जिसे सरस्वती पीठ के नाम से जाना जाता है वहां आज भी ब्रह्ममुहूर्त में सर्वप्रथम आल्हा ही पूजा करता है इसके बाद वहां का पुजारी अन्य भक्तों को दर्शन पूजन की अनुमति देता है।
बाबा कामराज के बाद भगवती के उच्च साधक बाबा कालिकानंद जी महाराज, बाबा देवकीनंदन जी महाराज, बाबा रामचरित्रानंद जी महाराज, बाबा कपाली केशवानंद जी महाराज, अघोर सम्राट बाबा रामतीर्थानंद जी महाराज, बाबा स्वरुपानंद जी महाराज, बाबा रामरथानंद जी महाराज, बाबा प्रेमानंद जी महाराज आदि के बाद १९८४ से २००६ तक बाबा प्रेमानंद जी महाराज के शिष्य साक्षात् शिवस्वरूप श्री महंत बापू गोपालानंद जी ब्रह्मचारी जी महाराज के शिष्य स्वामी सुरेशानंद ब्रह्मचारी इस पीठ के पीठाधीश्वर रहे और उन्होंने ही अपने गुरुभाई बापू गोपालानंद ब्रह्मचारी जी महाराज के शिष्य श्रीमहंत कैलाशानंद ब्रह्मचारी का चयन किया जो २००६ से ७१वें पीठाधीश्वर के रूप में मां की सेवा कर रहे हैं।
वर्तमान में यह मंदिर अग्नि अखाड़े से संबंधित है और अग्नि अखाड़े के सभापति है 138 वर्षीय महान साधक साक्षात् शिव स्वरूप अमोघ शक्तिपात के ज्ञाता श्री 108 श्री महंत बापू गोपालानंद ब्रह्मचारी जी महाराज।

1 टिप्पणी:

dileepkumar varma,aurangabad,m.s. ने कहा…

adarniya big-b...pranaam.,aapki LEKHANI/KALAM ko parampita SHRUSHTINIRMATA sashakta banaye rakhe...meri aur Shri Ajmirh Nandadeep Sandesh i.e.,S.A.N.S.Pariwar,Aurangabad (M.S.)ki apke,apke pariwarjano ke evam INDIA UVAACH ke liye dhersaari ATMIYA SHUBHKAMNAYE sweekar kare..shubhraatri..