रविवार, मई 29, 2011

वाम मार्ग क्या है?

वाम मार्ग क्या है?
युगों युगों से अध्यात्म के महान संसार में स्वयं को जानने और परम तत्व को प्राप्त की इच्छा के चलते मानव अपने लक्ष्य को निर्धारित कर स्वयं को अनुशासन में बद्ध करके अध्यात्म के विभिन्न मार्गों के माध्यम से उस परम तत्व की खोज करता है। जिन्हें अनेक नामों से जाना जाता है। जैसे वाम मार्ग, दक्षिण मार्ग, ज्ञान मार्ग, भक्ति मार्ग, योग मार्ग, आनन्द मार्ग, पिशाच मार्ग आदि।
हम यहां वाम मार्ग की चर्चा करेंगे। वाम शब्द का अर्थ बांया, स्त्री से संबंधित और उलटा है। यहां इसका अर्थ वामा अर्थात स्त्री से है। वाम मार्ग में स्त्री के सम्मान को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। जो विभिन्न रूपों में मातृस्वरूप होती हैं। ऐसा माना जाता है कि बिना वामा की प्रसन्नता के, बिना उसके सहयोग के किसी भी कुल में कोई उच्चावस्था या सिद्धि प्राप्त नहीं की जा सकती।
वाम मार्ग में जाति व्यवस्था को क्षुद्रता माना जाता है और स्त्री को शक्ति स्वरूपा। जाति से उठकर स्त्री को शक्ति स्वरूपा मानकर ही साधक उच्चावस्था को प्राप्तकर अपने लक्ष्य को पा सकते हैं, क्यों कि वाम मार्ग में स्त्री को जो सम्मान प्राप्त है, वह कहीं ओर प्राप्त हो ही नहीं सकता। विभिन्न जाति की महिलाओं को ऊर्जा / शक्ति अर्थात् सर्वोच्च शक्ति का रूप माना जाता है।
इस संबंध में रसयामल तंत्र के उत्तर तंत्र में कहा गया भी है कि
रजस्वला पुष्करं तीर्थ चाण्डाली तु महाकाशी।
चर्मकारी प्रयाग: स्याद्रजकी मथुरामता॥
वाम मार्ग में साधक, स्त्री को वह पवित्रावस्था में हो या अपवित्रावस्था में, अपने जीवन और शरीर से अधिक महत्वपूर्ण और शक्तिवाहिनी मानता है।
वाम मार्गीय तंत्र में न तो जातियां ही महत्वपूर्ण हैं और न रंगभेद। इस मार्ग में मां के नौ रूपों में  भिन्न भिन्न जाति की कन्याओं को सर्वोच्च शक्तिसंपन्न मां दुर्गा का रूप मानकर पूजा जाता है।
रसयामल तंत्र के उत्तर तंत्र में इस संबंध में स्पष्टï कहा गया है कि
नटी कपालिका वेश्या रजकी नापिताङ्गना।
ब्रह्माणी शुद्रकन्या च तथा गोपालकन्यका:।
मालाकारस्य कन्या च नवकन्या प्रकीर्तिता:॥
अर्थात् नट की कन्या, अंतिम संस्कार कराने वाले की कन्या,  वेश्या की कन्या, वस्त्रादि धोकर आजीविका चलाने वाले की कन्या, नापित की कन्या, ब्राह्मïण की कन्या, शूद्र कर्मकार की कन्या, गौ आदि चराकर उदरपूर्ति करने वाले की कन्या और बाग बगीचों का कार्य कर उदराभरण करने वाले की कन्या। इन सभी नौ कन्याओं को दुर्गा स्वरूपा देवी माना जाता है। माँ के नौ समान शक्तिशाली पवित्र रूपों में सर्वशक्तिमान इन नौ कन्याओं को मां दुर्गा देवी की तरह पूजा जाता है और सम्मान दिया जाता है।
नवरात्रि के पर्वों पर पारणा के समय जब इन नव दुर्गा देवी स्वरूपा कन्याओं को पुष्प, फल, भोजन और दक्षिणा आदि प्रदानकर उन्हें प्रसन्न किया जाता है और उनसे आशीर्वाद लिया जाता है। उस समय उनके भोजनादि से निवृत्ति के बाद बचे अवशिष्टï को मां का प्रसादस्वरूप मानकर ग्रहण किया जाता है।
रसयामल तंत्र के उत्तर तंत्र में इसका उल्लेख इस प्रकार किया गया है।
धूपैर्दीपैश्च नैवैद्यैर्विविधै: भगवतीश्ननन्।
विधाय वन्दितां तां च तदुच्छिष्ट स्वयंचरेत्॥
भगवान विष्णु के अवतार, सूर्यवंश के प्रतापी अयोध्या के राजा प्रभु राम द्वारा वाम मार्ग का साधन करते हुए वनवास काल के दौरान शूद्रा शबरी के द्वारा उच्छिष्ट किए गए फलों को ग्रहणकर बिना किसी अहंकार के या छुआछूत के किसी भी मुद्दे पर विचार किए बिना वाममार्ग का पालन किया।
वाममार्ग में कहा है कि अगर एक शक्तिशाली और सक्रिय (शिष्य) अपने जाति, पंथ, अभिमान, अहंकार, धन, आदि के प्रभाव में इन नौ (देवी नौ महिलाओं, जो माँ देवी दुर्गा के नौ रूपों के बराबर माना जाता है) देवियों का अपमान करता है तो वह अपनी शक्ति और ऊर्जा खो देता है, चाहे वह स्वयं देवताओं का राजा इंद्र ही क्यों न हो। यदि इंद्र भी ऐसा करेगा तो  वह भी अपनी सत्ता और राज्य खो देता है।
वाम मार्ग तंत्र में स्पष्ट कहा है कि
अविचारं शक्त्युच्छिष्ठ पिबेच्छक्रपुरो यदि।
घोरञ्च नरकं याति वाममार्गात्पतेद्ध्रुवम्॥
यह मार्ग अघोर मार्ग है। भगवान् शिव को अघोरेश्वर कहा जाता है। वाम मार्ग को भगवान् शिव का मार्ग भी कहा जाता है।
यह मार्ग प्रकृति के कृतित्व निर्माण के लिए जाना जाता है, इसके माध्यम से बिना किसी भ्रम के पुनरोत्पादन, पुनर्निर्माण, विकास और क्रियात्मकता का मार्ग खुलता है।
भगवान शिव जो खुद वाम मार्ग का अनुयायी कहा जाता है। वे अर्धनारीश्वर हैं, जिसका अर्थ है - जो आधा स्त्री हो और आधा पुरुष हो।
इस पथ का अनुयायी सब झंझओं से मुक्त हो जाता है और अघोरी शिष्य कहा जाता है, जो साधना के बल पर भगवान शिव के समान हो जाता है।
महानिर्वाण तंत्र में कहा गया है-
पाशबद्धो भवेज्जीव: पाशमुक्त: सदाशिव:॥
ये भगवान् शिव ही भैरव रूप में प्रगट होते है।
भैरवोऽहम् शिवोऽहम्॥
अर्थात् मैं भैरव हूँ और मैं शिव हूं। शिव हमेशा गहराई में ध्यान केंद्रित हैं। शक्ति में स्थित हैं। बिना शक्ति के शिव  शव मात्र हैं। शक्ति को धारण करने के बाद इस मार्ग का शिष्य/अनुयायी भैरव के समान है जिसका अर्थ है वह खुद को शिव के रूप में ही स्थिति पा लेता है।
-चंद्र शेखर शास्त्री

शुक्रवार, मई 27, 2011

मेरे जिगर का खून...

मेरे जिगर का खून... 

कल उसने मुझे
झकझोर दिया
जब यादों के बगीचे में
बंजर हो गई जमीन पर
इक फूल
मुस्कुरा उठा।
वह ख्वाब था
या हकीकत
यह मैं जान न पाया।
मैं भौंचक्का था
दिग्भ्रमित सा
कि बंजर में फूल
कैसे खिल आया
मैं बगीचे के पास आया।
यादों को अश्रुजल से सींचा
और खिले हुए
फूल को देखकर
कुछ मैं भी खिला।
मैं खिलखिलाते
फूल की ओर बढ़ा
फूल मुझे देखकर
कुछ और खिला
और मुस्कुराया।
मैंने चाहा कि
इस फूल को ले चलूं
अपने साथ
कि यहां का नाशाद बंजर
इसे फिर सुखा देगा।
पर ज्यों ही मैंने
फूल की तरफ
हाथ बढ़ाया
वह भरभराकर
बिखर गया
उसी बंजर में
और मेरे हाथ में था
फूल का
कांटों भरा तना
जिसकी चुभन से
टपक रहा था
मेरे जिगर का खून...
-चंद्र शेखर शास्त्री 'वारिद'

गुरुवार, मई 05, 2011

जहां चमत्कार स्वयं नमस्कार करते हैं

बाबा कामराज जी महाराज 

मंदिर का प्राचीन शिलालेख

परमगुरुदेव श्री प्रेमानंद जी महाराज

गुरुदेव श्री बापू गोपलानंद जी महाराज

गुरुभाई श्री कैलाशानंद जी महाराज

ma dakshin kali mandir ka vihangam drishya

asli brahmkund

diksha ke samaya ishvariya satta se sakshatkar  karate hue gurudev
अनादि सिद्धपीठ श्री दक्षिण काली मन्दिर, हरिद्वार
जहां चमत्कार स्वयं नमस्कार करते हैं
हरिद्वार में नील पर्वत की तलहटी के कजरी वन में गंगा की नीलधारा के तट पर स्थित दस महाविद्याओं में प्रथम सिद्धपीठ मां दक्षिण काली के मन्दिर पर पूरे विश्व के महाकाली साधक पुत्र अपनी अभीष्ट साधना करते हैं, जिसका देवी भागवत में श्यामापीठ, योगिनी हृदयम्,काल कल्पतरु एवं कुलार्णव तंत्र में दक्षिण काली तथा रुद्रयामल तंत्र में कामराज कूट पीठ के नाम से वर्णन किया गया है तथा काली हृदय कवच में भगवान शिव ने उमा को श्यामापीठ में साधना का निर्देश दिया था।
चण्डीघाट की ३३ एकड़ भूमि में स्थित इस सिद्धपीठ में ७१वें पीठाधीश्वर श्रीमहंत कैलाशानंद ब्रह्मचारी के सानिध्य में निरन्तर अन्न क्षेत्र, गौशाला, वृद्ध सेवाश्रम, धर्मार्थ चिकित्सालय, वेद विद्यालय तथा संत सेवा के साथ ही नियमित अनुष्ठान एवं पूजा अर्चना होती है। गुप्त व प्रकट चारों नवरात्र में विशेष अनुष्ठानों का आयोजन होता है। प्रकट नवरात्रों में पूरे देश के भक्त विशेष कार्य सिद्धि अनुष्ठानों का आयोजन करते हैं, ज्येष्ठ शुक्ल सप्तमी के दिन बाबा कामराज जी का जन्मदिन बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है और श्रावण मास में प्रतिदिन महारुद्राभिषेक का आयोजन होता है। वाममार्गीय परम्परा की इस पीठ पर मां दक्षिण काली अनादि काल से विराजमान हैं, मां ने स्वयं बाबा कामराज को यहां मंदिर मे अपने विग्रह के मंदिर स्वरूप की स्थापना का आदेश दिया था, जिसके बाद दसवीं सदी में तंत्र सम्राट साक्षात् शिवस्वरूप बाबा कामराज महाराज ने १०८ नरमुण्डों पर मन्दिर की स्थापना की, ये नरमुंड़ उन लोगों के होते थे, जो पूर्व में ही मृत्यु को प्राप्त होकर नीलधारा में बहते हुए वहां आ जाते थे, बाबा कामराज उन्हें तंत्र क्रिया से जीवित करके उन्हें वस्तुस्थिति से अवगत कराते थे और उन्हें बलि के लिए सहमत करते थे, जो मृतक जीवित होने के बाद स्वयं को मां के चरणों में स्वयं को अर्पित कर देते थे, उनकी सहमति के बाद उनकी बलि होती थी, उसके बाद उनके शवों का अग्नि संस्कार होता था।
वाम मार्ग की इस विश्वविख्यात पीठ का मां की सिद्धकृपा से आशीर्वाद प्राप्तकर कश्मीर के राजा हरिसिंह, हरियाणा, पंजाब, बंगाल के राजघरानों के अतिरिक्त लखनऊ के नवाब तथा अकबर के परिवार ने भी मन्दिर का जीर्णोद्वार कराया था। उस समय यह मंदिर वर्तमान स्थान से सैंकड़ों फुट नीचे था। इन भक्तों ने समय समय पर इसे मन्दिर के गर्भगृह सहित ऊपर उठाकर मन्दिर पुनरुद्धार कर मां का आशीर्वाद लिया। इस सिद्धपीठ की विशेषता है कि आज भी रात्रि के तीसरे एवं चौथे प्रहर में मां काली एवं बाबा कामराज अपने भक्तों को दर्शन देकर उनका कल्याण करते हैं। दोनों प्रकट नवरात्रों में आयोजित होने वाले रात्रि कालीन अनुष्ठानों में सीमित मात्रा में वे भक्त ही सम्मिलित हो पाते हैं, जिन पर मां की कृपा होती है। शारदीय तथा वासंतीय नवरात्रों में मां काली की प्रेरणानुरूप अनवरत सहस्रचंडी अनुष्ठान, यज्ञ तथा महामृत्युञ्जय अनुष्ठान विश्व कल्याण की कामना से किया जाता है। विश्व की यह प्रथम सिद्धपीठ है जहां किसी यजमान से कोई दक्षिणायाचन नहीं किया जाता और भक्त को भी मां से कुछ मांगना नहीं पड़ता। मात्र माता के दरबार में हाजिरी देने से कल्याण हो जाता है। विशेष कार्य सिद्धि के लिये ही अनुष्ठानों का आयोजन होता है।
मन्दिर सतयुग कालीन प्राचीन ब्रह्मकुण्ड के पास स्थित है, जैसा कि पुराणों में वर्णित है कि गंगा की नीलधारा में ही ब्रह्मकुंड है। परन्तु अज्ञानतावश लोग हर की पैड़ी को ब्रह्मकुंड़ मान बैठते है। इस ब्रह्मकुंड को मच्छला कुण्ड के नाम से जाना जाता है। आल्हा की पत्नि मछला इसी कुण्ड में नियमित स्नान करती थी इसीलिये इसे मछला कुण्ड भी कहते हैं और इस कुण्ड में आज भी अथाह जलराशि है, अंग्रेज भी इस कुण्ड की थाह नहीं ले पाये तो उन्होंने बैराज बनाकर गंगनहर निकाली जहां वर्तमान ब्रह्मकुण्ड हरकी पैडी के नाम से प्रसिद्ध है। बाबा कामराज महाराज ने इसी ब्रह्मकुण्ड में आल्हा को स्नान करवाकर अमर होने का वरदान दिया था। समुद्र मंथन से निकले अमृत की बूंद गिरने से यहां ब्रह्मकुण्ड बना और भगवान भोलेनाथ ने समुद्र मंथन से निकले हलाहल को कण्ठ में धरण कर उसकी उष्णता समाप्त करने के लिये गंगा की जिस मुख्य धारा में स्नान किया, वह हलाहल विष के प्रभाव से नीली हो गई, गंगा की उसी धारा को नीलधारा कहते है जिसका जल आज भी नीले रंग का होता है। इसी नीलधारा के तट पर विराजमान होकर मां दक्षिण काली अपने भक्तों का कल्याण करती हैं।
श्री दक्षिण काली मन्दिर के अन्वेषक बाबा कामराज महाराज, जो अमरा  गुरु के नाम से विख्यात हुए, सन् १२१९ में ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष सप्तमी को मंदिर की देखरेख अपने शिष्य बाबा कालिकानंद जी महाराज को सौंपकर तीर्थाटन के लिए मन्दिर से अदृश्य हो गए। वे आठवें दीर्घजीवी हैं और मां के साथ मन्दिर परिसर में ही विद्यमान हैं। समय समय पर साधकों को उनके दर्शन होते रहते हैं। इस मन्दिर परिसर में स्थायी रूप से एक सफेद नाग-नागिन, एक काला नाग-नागिन तथा एक अजगर निवास करते हैं जो श्रावण मास पर्यन्त पूरे मन्दिर परिसर में भक्तों के साथ रहते हैं और स्पर्श के बाद भी काटते नहीं।
काली मन्दिर कलकत्ता के मुख्य सेवक स्वामी रामकृष्ण परमहंस के गुरु तोतापुरी महाराज ने इसी पीठ से तंत्र साधना प्रारम्भ की थी। गुरु शिष्य परंपरा के अनुसार देखते हैं तो बाबा कामराज जी महाराज के शिष्य हुए बाबा तोतापुरी जी महाराज और तोतापुरी जी महाराज के शिष्य थे स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी। तारा पीठ के संस्थापक तथा पूरे विश्व में तंत्र विद्या के मूल प्रवर्तक वामाखेपा ने भी बाबा कामराज से ही दीक्षा लेकर शमशान काली की स्थापना की। दिल्ली छतरपुर स्थित कात्यायिनी पीठ के संस्थापक बाबा नागपाल जी महाराज ने भी इसी स्थान पर साधना की थी तथा दतिया स्थित पीताम्बरा पीठ मां बंगलामुखी मंदिर के संस्थापक राष्ट्रीय स्वामी दतियावाले भी यहां साधना करते थे। आसाम में कामाख्यापीठ में दस महाविद्या की स्थापना करने से पूर्व अघोर तंत्रशिरोमणि बबलू खेपा ने भी बाबा कामराज से दीक्षा ली जबकि उन्होंने अन्तिम दीक्षा आल्हा को दी। सतना की मैहर स्थित शारदापीठ जिसे सरस्वती पीठ के नाम से जाना जाता है वहां आज भी ब्रह्ममुहूर्त में सर्वप्रथम आल्हा ही पूजा करता है इसके बाद वहां का पुजारी अन्य भक्तों को दर्शन पूजन की अनुमति देता है।
बाबा कामराज के बाद भगवती के उच्च साधक बाबा कालिकानंद जी महाराज, बाबा देवकीनंदन जी महाराज, बाबा रामचरित्रानंद जी महाराज, बाबा कपाली केशवानंद जी महाराज, अघोर सम्राट बाबा रामतीर्थानंद जी महाराज, बाबा स्वरुपानंद जी महाराज, बाबा रामरथानंद जी महाराज, बाबा प्रेमानंद जी महाराज आदि के बाद १९८४ से २००६ तक बाबा प्रेमानंद जी महाराज के शिष्य साक्षात् शिवस्वरूप श्री महंत बापू गोपालानंद जी ब्रह्मचारी जी महाराज के शिष्य स्वामी सुरेशानंद ब्रह्मचारी इस पीठ के पीठाधीश्वर रहे और उन्होंने ही अपने गुरुभाई बापू गोपालानंद ब्रह्मचारी जी महाराज के शिष्य श्रीमहंत कैलाशानंद ब्रह्मचारी का चयन किया जो २००६ से ७१वें पीठाधीश्वर के रूप में मां की सेवा कर रहे हैं।
वर्तमान में यह मंदिर अग्नि अखाड़े से संबंधित है और अग्नि अखाड़े के सभापति है 138 वर्षीय महान साधक साक्षात् शिव स्वरूप अमोघ शक्तिपात के ज्ञाता श्री 108 श्री महंत बापू गोपालानंद ब्रह्मचारी जी महाराज।