बुधवार, दिसंबर 07, 2011

सुख समृद्धि का आधार है गीता
कलिकाल के इस भौतिक युग में प्रत्येक प्राणी किसी न किसी प्रकार की आधि व्याधि से ग्रस्त है। यह कलियुग का ही प्रभाव है कि ईश्वर में अनास्था, अनुचित खानपान, अनुचित व्यवहार और अनुचित आचरण के कारण समाज में हर स्तर पर भ्रष्टाचार दिनोदिन बढ़ रहा है। अंधी दौड़ में गलाकाट स्पर्धा से सभी एक दूसरे से आगे निकलने के लिए कर्मशुचिता से दूर होते जा रहे हैं, ऐसे में मानव का दुख के गर्त में गिरना निश्चित है। प्राणी मात्र की मानसिक, आत्मिक और शारीरिक शुचिता के लिए ही भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश के बहाने से समस्त शास्त्रों के सार स्वरूप गीता के ज्ञान से हमें अवगत कराया है, जो निश्चय ही समस्त सुख समृद्धि का आधार है।
गीता समस्त शास्त्रों का सार है। इसीलिए इसे सर्वशास्त्रमयी भी कहा जाता है। भारतीय मनीषा को समझने के लिए वेद को जानना आवश्यक है और वेद को समझने के लिए  शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, ज्योतिष, छंद आदि वेदांग व सांख्य, न्याय, योग, वैशेषिक, पूर्व मीमांसा, उत्तरमीमांसा आदि उपांग के साथ ब्राह्मïण ग्रंथ, आरण्यक, उपनिषद और अनेक अध्यात्म ग्रंथों का अध्ययन करना होगा, जिसके लिए एक जन्म तो निश्चय ही कम पड़ेगा। लेकिन यदि मात्र गीता को पढ़कर ही हृदयंगम कर लिया जाए तो मानव समस्त शास्त्र का ज्ञाता हो जाता है और दैहिक, दैविक, भौतिक आदि त्रिविध तापों से मुक्त हो जाता है। गीता केवल ज्ञान और योग की ही विषयवस्तु नहीं, यह मानव कल्याण के प्रत्येक पहलू को आत्मसात किए हुए है। संसार के समस्त ज्ञान को एकत्र कर गीता रूपी गागर में स्थापित करने वाले भगवान श्री कृष्ण स्वयं कहते हैं कि
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदु:॥

(गीता 4/1-2)
अर्थात् वैसे तो यह ज्ञान अनादि काल से उपदेशित है, लेकिन गीता रूप में यह आज मेरे द्वारा प्रगट हुआ है।
प्रागैतिहासिक दृष्टिï से देखते हैं तो गीता आज से लगभग 5142 वर्ष पूर्व महर्षि वेदव्यास कृत महाभारत के भीष्म पर्व के पच्चीसवें अध्याय के प्रारंभ में संजय के द्वारा धृतराष्ट्र को सुनाया गया वह भाग है, जिसमें कलियुग के प्रारंभ होने के तीस वर्ष पूर्व मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी के दिन कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन के नङ्क्षदघोष नामक रथ पर सारथी के रूप में विराजमान स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा मोहग्रस्त युद्धविमुख अर्जुन को उपदेशित किया गया है। इसी दिन को हम गीता जयन्ती के रूप में मनाते हैं। गीता के पहले अध्याय के बीसवें श्लोक से संजय भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद रूप में श्रीमद् गीता का आरंभ करते हैं और अठारहवें अध्याय के चौहत्तरवें श्लोक में इति पद से इसका समापन करते हैं।
श्रीमद्भगवद् गीता में 18 अध्याय हैं, जो अर्जुनविषादयोग, सांख्ययोग, कर्मयोग, ज्ञानकर्मसंन्यासयोग, कर्मसंन्यासयोग, आत्मसंयमयोग, ज्ञानविज्ञानयोग, अक्षरबह्मïयोग, राजविद्याराजगुह्ययोग, विभूतियोग, विश्वरूपदर्शनयोग, भक्तियोग, क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग, गुणत्रयविभागयोग, पुरुषोत्तमयोग, दैवासुरसम्पद्विभागयोग, श्रद्धात्रयविभागयोग और मोक्षसंन्यासयोग के नाम से प्रसिद्ध हैं। सभी अध्यायों में प्रवृत्ति तथा प्रकृति में सामंजस्य स्थापित कर निष्काम भाव से कर्म करने की प्रेरणा दी गई है। निष्काम भाव से किया गया कर्म ही भगवत प्राप्ति का कारक कहा गया है। ईश्वर की उपासना के सकाम एवं निष्काम दो भाव बताए गए हैं। दोनों का फल प्राणी को अपने भाव के अनुरूप ही प्राप्त होता है, लेकिन भावना के अनुसार दोनों के फलों में भिन्नता भी होती है। सकाम भाव के भक्त को जहां सांसारिक भोग एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है, वहीं निष्काम भाव से भक्ति करने वाला ईश्वरीय सत्ता का अधिकारी परमात्म तत्व को प्राप्त होता है। सांसारिक सुख तो समय सीमा से बंधे है, जिनका नष्टï होना निर्धारित है, किन्तु मोक्ष सुख तो समस्त कर्मों के क्षय होने के पश्चात ही प्राप्त होता है। यही सच्चिदानंदस्वरूप है और यही एकमात्र मानव जीवन का परम लक्ष्य है।
वस्तुत:गीता का उपदेश भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन के माध्यम से समस्त जीवों के आत्म कल्याण के लिये ही किया है। आत्मतत्व की दृष्टि से संसार के सभी प्राणी एक समान हैं। इनमें न तो कोई छोटा है न बड़ा। हाथी से चींटी तक सभी बराबर हैं। न कोई कोई श्रेष्ठ है और न कोई हीन। न कोर्ई ब्राह्मण है और न ही शूद्र। समस्त भेदों से परे तथा हानि लाभ, जीवन मरण, यश-अपयश, सुख दुख आदि सभी स्थितियों से ऊपर आत्मतत्व का स्वरूप होता है। जो इन सभी परिस्थितियों में समभाव से उस परमतत्व का ध्यान करता है, उसी में रमण करता है, वही परमात्मा को प्राप्त करता है। गीता के सत्य, ज्ञानपूर्ण व गंभीर उपदेश, आत्मसात करने वाले मनुष्य को महापतित दशा से उठाकर देवताओं के स्थान पर बैठाने की शक्ति रखते हैं।
समस्त सृष्टि में जो ज्ञेय है अथवा अज्ञेय है, प्रतीति है या अनुभव से परे है, वह सब माया है। समस्त चराचर में परमात्मा ही विद्यमान है। पुनरपि वह निर्लिप्त है। वह केवल दृष्टा है। मार्गदर्शक है और सुख दुख हर्ष विषाद आदि से परे है। वहीं संसार के सभी प्राणी अपने अपने कर्मों के अनुसार सुख या दुख पाते हैं। अपने भीतर होने वाली सभी प्रवृत्तियों का कर्ता, हर्ता एवं नियन्ता प्राणी स्वयं ही है। इसीलिए यह संसार सुख दुख, हानि लाभ, हर्ष विषाद आदि से भरा पड़ा है। जहां जीव को सृष्टिï के अटल नियम के अनुसार अपने अपने कर्म का फल भोगना होता है। यही गीता का सार है।
संसार में किसी भी ग्रंथ की जयंती नहीं मनाई जाती, केवल गीता जयंती मनाने की परंपरा पुरातन काल से चली आ रही है क्योंकि अन्य ग्रंथ किसी मनुष्य द्वारा लिखे या संकलित किए गए हैं, जबकि गीता स्वयं श्रीभगवान के श्रीमुख से नि:सृत है-
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनि:सृता।।
इसलिए इस ग्रंथ में कहीं भी श्रीकृष्ण उवाच शब्द नहीं आया है। जब श्रीकृष्ण बोलते हैं तो श्रीभगवानुवाच का प्रयोग किया गया है। कलियुग के प्रभाव के कारण धर्म लोप की अवस्था में अज्ञान तिमिर से मुक्त करने वाला ग्रंथ केवल गीता ही है। क्यों कि शास्त्र कहते हैं कि कलि प्रभाव से न तो अब अवतार होंगे, न ही सिद्धियां होंगी, साधुता और तपस्विता के भी दर्शन नहीं होंगे और प्रजापरायण नीतिवान, परोपकारी राजा भी नहीं होंगे। अनाचार अपने चरम पर होगा। ऐसे में आत्मकल्याण का एक ही मार्ग बचता है और वह है गीता ज्ञान।
श्रीमद्भगवद्गीता जीवन में सफलता की कुंजी है। न सिर्फ विद्वानों ने, बल्कि विश्व के अनेक सफल व्यक्तियों ने श्रीमद्भगवद्गीता के महत्व को समझा है और उससे प्रेरणा भी ग्रहण की है। स्वामी विवेकानंद ने गीता को अपने जीवन व्यवहार में उतारा था। स्वामी कल्याण देव ने शिक्षा की अलख जगाने में गीता को ही चरितार्थ किया था। गीता जीवन के गूढ़ रहस्यों को सुलझाती है। गीता की उपयोगिता इसी बात से देखी जा सकती है कि हजारों वर्ष पश्चात भी इसकी प्रासंगिकता यथावत है। क्योंकि उस समय की समस्याएं और परिस्थितियां आज भी विद्यमान हैं। आज के इस जीवन संघर्ष में तो गीता की उपयोगिता व प्रासंगिकता और अधिक हो गई है, क्योंकि यह अध्यात्म भी है और व्यावहारिक होने के कारण विज्ञान भी। गीता का आध्यात्मिक तत्व यह है कि यह संसार एक युद्धस्थल है, जिसमें प्रत्येक प्राणी सत्य और श्रेष्ठïता के लिए किसी न किसी रूप में बुराइयों से युद्धरत है। कौरव बुराइयों और पांडव अच्छाइयों के प्रतीक हैं। गीता का संदेश है कि यदि अपने कर्म में निरंतर रत रहा जाए और संघर्ष निरंतर रखा जाए, तो अंत में विजय अच्छाइयों की ही होती है।
वेदों के विस्तारकर्ता, पुराणों और महाभारत के रचयिता महर्षि वेदव्यास कहते हैं कि गीता का ध्यान के साथ श्रवण और पठन-पाठन करने व इसकी प्रत्येक पंक्ति का मनन करने से आत्मतत्व की प्राप्ति होती है। जीवन के रहस्यों को सुलझाने में गीता के अध्येता को शास्त्रसंग्रह की कोई आवश्यकता नहीं रहती है। श्रीकृष्ण के मुख से प्रगट गीता में संसार की सभी समस्याओं का समाधान निहित है