सोमवार, सितंबर 09, 2013

यज्ञों के गूढ़ रहस्यों के प्रतिपादक हैं आरण्यक

यज्ञों के गूढ़ रहस्यों के प्रतिपादक हैं आरण्यक



वेदों के यज्ञीय विधान को स्पष्ट करने वाले ग्रंथ को ब्राह्मण कहा गया है। जिसमें तीन कांड हैं, कर्मकांड, उपासना कांड और ज्ञान कांड। इसके उपासना कांड को आरण्यक कहा गया है। आरण्यकों में ब्रह्मïविद्या का विवेचन और यज्ञ के गूढ़ रहस्यों का प्रतिपादन किया गया है। आत्म तत्व, ब्रह्मï तत्व, ब्रह्म और आत्मा, प्राण सिद्धान्त, ब्रह्मï और जगत, पुनर्जन्म और कर्म सिद्धान्त तथा नैतिक मूल्यों पर इनमें विस्तृत विवेचना है।
ब्रह्मïचारी ऋषियों द्वारा वेदों के दुर्गम ज्ञान को प्राणीमात्र के कल्याण के लिए सुलभ बनाने के उद्देश्य से जनशून्य अरण्य(वन) में इस विद्या का अनुसंधानपरक पठन पाठन किया गया, इसलिए इन्हें आरण्यक कहा जाता है।
आरण्यक आध्यात्मिक तत्वों की यथार्थ मीमांसा और ब्रह्मïविद्या के रहस्यों को समाहित किए हुए हैं। सूक्ष्म अध्यात्मवाद के कारण नगरीय अथवा ग्रामीण कोलाहल से दूर अरण्यों में ब्रह्मïचारी औैर वानप्रस्थी ऋषि गुरुओं द्वारा अरण्यवासी योग्य शिष्यों को प्रदान किया गया विशिष्ट ज्ञान ही आरण्यक ग्रंथों के रूप में उपलब्ध है।
आरण्यकों के अनुसार संपूर्ण ब्रह्माण्ड यज्ञमय है और यज्ञ ही समस्त सृष्टि का नियन्ता है। प्राण विद्या का विवेचन आरण्यकों का विशिष्ट विषय है। प्राण ही समस्त सृष्टि का आधार है। समस्त जगत प्राण से ही आवृत्त है। उसके द्वारा ही सभी प्राणी धारण किए गए हैं।
आरण्यकों के बिना वेदों को समझ पाना असंभव है। क्यों कि वेद ब्रह्मïविद्या का ज्ञान है और ब्रह्मïविद्या के रहस्य आरण्यकों में ही छिपे हुए हैं। इनमें जीवन शैली और जप तप के द्वारा ईश्वर को जानने का मार्ग बताया गया है। ये सभी आरण्यक संवाद शैली में लिखे गए हैं। इनमें गुरु उपदेश करता और शिष्य सुनता है। आपस्तंब धर्मसूत्र में तो मंत्र और ब्राह्मण(ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद) का संयोजन  ही वेद कहा गया है। 'मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदानामधेयम्।
केवल तीन वेदों के आरण्यक ही उपलब्ध हैं। ऋग्वेद के दो (ऐतरेय आरण्यक एवं शांखायन अथवा कौषीतकी आरण्यक), यजुर्वेद के तीन ( शुक्ल यजुर्वेद का बृहदारण्यक और कृष्ण यजुर्वेद के तैत्तरीय आरण्यक व मैत्रायणी आरण्यक) तथा सामवेद के छान्दोग्यारण्यक व जैमिनीय आरण्यक हैं। इसके अतिरिक्त सामवेद के पूर्वाचिक खंड में आरण्यक संहिता का भी उल्लेख है। अथर्ववेद में कोई आरण्यक नहीं है, पुनरपि पिप्लाद ब्राह्मण के गोपथ ब्राह्मण को अथर्ववेद के आरण्यक के रूप में माना जा सकता है।
ऐतरेय आरण्यक
ऋग्वेद के इस आरण्यक के पांच भाग हैं, जिन्हें आरण्यक ही कहा जाता है। इसके प्रथम आरण्यक में पांच, द्वितीय में सात, तृतीय में दो, चतुर्थ में एक और पांचवें में तीन अध्याय हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर इसमें अठारह अध्याय हैं। इसके प्रथमारण्यक में महाव्रत विवेचन है, दूसरे आरण्यक के प्रथम तीन अध्यायों में प्राण विद्या और पुरुष का वर्णन है। चार से षष्ठïम आरण्यक तक ऐतरेयोपनिषद है। जिसमें यज्ञ के विधान का विशेष वर्णन है। इसमें बताया गया है कि किस प्रकार अग्नि, सूर्य और वायु आहुति ग्रहण करते हैं। तीसरे आरण्यक को संहितापनिषद कहा गया है क्यों कि इसमें संहिता, क्रम, पदपाठ वर्णन और स्वर व्यंजन आदि के स्वरूप का विवरण है। चतुर्थ आरण्यक में महाव्रत के पांचवें दिन में प्रयुक्त होने वाली महानाम्नी ऋचाओं का वर्णन है तथा पांचवें आरण्य में महाव्रत के मध्यान्दिन वनक्षेत्र में पढ़े जाने वाले निष्कैवल्य शास्त्र का विवेचन है। ऐतरेय में प्राण को ही विश्वमित्र, वशिष्ठï, वामदेव, अत्रि और भारद्वाज बताया गया है।
शांखायन आरण्यक
इसे कौषतकि आरण्यक भी कहा गया है। यह भी ऋग्वेद का ही आरण्यक है। इसमें कुल पंद्रह अध्याय और 137 खंड हैं। इसके पहले दो अध्यायों को ब्राह्मïणभाग माना जाता है और तीन से छ:अध्याय तक कौषीतकि उपनिषद के रूप में जाना जाता है। षष्ठïम अध्याय में कुरुक्षेत्र, मत्स्य, उशीनर, काशी, पांचाल, विदेह आदि प्रदेशों का उल्लेख है। दशम अध्याय में यज्ञ के रहस्यों को  गूढ़ विधान को और पूजा पद्धति को लक्ष्यकर लिखा गया है। एकादश अध्याय में रोग और मृत्यु पर विजय कैसे पाई जाए और स्वप्न का क्या अर्थ होता है, इस पर विशद वर्णन है। बारहवां अध्याय प्रार्थनाओं के फल पर लिखा गया है। तेरहवें अध्याय में उपनिषदों से अनेक उदाहरण लिए गए हैं। महाव्रत आदि कृत्यों के सहित इसमें भी ऐतरेय आरण्यक के समान ही विषयों का विवेचन किया गया है।
बृहदारण्यक
शुक्ल यजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण की मध्यान्दिन और काण्व दोनों शाखाओं के अंतिम छ: अध्यायों को बृहदारण्यक कहा जाता है। इसमें आरण्यक और उपनिषद दोनों का मिश्रण है। बृहदारण्यक अन्य आरण्यकों की अपेक्षा अधिक बड़ा है। इसके अध्यायों के भागों को ब्राह्मण कहा गया है। बृहदारण्यक में छ: अध्याय हैं। इसके प्रथम अध्याय में अश्वमेध यज्ञ के रहस्य का विवेचन है। इससे आगे प्रजापति के पुत्र देव और असुरों के विग्रह का वर्णन है। ऋत्विक धर्म का विवेचन है। दूसरे अध्याय में दृप्तबालाकि गार्ग्य और अजातशत्रु का संवाद है। इसी अध्याय के चतुर्थ भाग में याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी का विश्वप्रसिद्ध संवाद है। तीसरे और चौथे अध्याय में जनक और याज्ञवल्क्य का संवाद है। पांचवें अध्याय में उपासना के प्रकार और गायत्री की उपासना पर विशद विवेचन है। छठे अध्याय में पंचाग्नि विद्या और संतानोत्पत्ति पर  विवेचना है। इसमें आत्म तत्व का विस्तृत उपदेश है और बीच बीच में यज्ञ के रहस्यों का वर्णन है।
मध्यान्दिन और काण्व दोनों ही शाखाओं के बृहदारण्यकों में याज्ञवल्क्य और जनक का संवाद तथा ब्रह्मïवादिनी मैत्रेयी व गार्गी का संवाद है।
तैत्तरीय आरण्यक
यह कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तरीय शाखा का आरण्यक है। इसमें दस प्रपाठक या परिच्छेद (भाग)हैं। हर प्रपाठक के कई अनुवाक (अध्याय) हैं, कुल मिलाकर 170 अनुवाक हैं। सातवें से नौवें प्रपाठक को तैत्तरीयोपनिषद कहा जाता है। दशम प्रपाठक महानारायणीयोपनिषद है। जिसे तैत्तरीय आरण्यक का परिशिष्ट माना जाता है। इसके प्रथम प्रपाठक में अग्नि की उपासना और इष्ट चयन का वर्णन है। दूसरे प्रपाठक में स्वाध्याय और पंच महायज्ञों के विधान का वर्णन है। तीसरे प्रपाठक में चतुर्होम के उपयोगी मंत्रों का विवेचन है और चतुर्थ प्रपाठक में अभिचारपरक मंत्रों का वर्णन है। पंचम प्रपाठक में यज्ञीय संकेत भाषा का वर्णन है। षष्ठम प्रपाठक में पितृमेध संबंधी मंत्रों का वर्णन है। सप्तम प्रपाठक में यज्ञोपवीत और यज्ञ विधान पर विस्तृत चर्चा है।
मैत्रायणी आरण्यक
यह कृष्ण यजुर्वेद की मैत्रायणी शाखा से संबंधित है। इसे मैत्रायणी उपनिषद भी कहा जाता है। इसमें सात प्रपाठक हैं। पांचवें प्रपाठक से कैत्सायनी स्तोत्र का प्रारंभ होता है। इसमें ईश्वर को अग्नि और प्राण बताते हुए उन पर विस्तृत विवेचन किया गया है। इसमें विश्व सृष्टि का उपाख्यान है। प्रकृति के सत्व, रजस और तमस गुणों का संबंध ब्रह्मï, विष्णु और रुद्र से किया गया है। इसमें ऋग्वेद के साथ साथ सांख्य दर्शन के सिद्धांतों को भी समन्वित किया है। इस आरण्यक का विषय विवेचन तीन प्रश्नों के रूप में प्रकट होता है, पहला- आत्मा भोतिक शरीर में किस प्रकार प्रवेश पाता है। दूसरा- परमात्मा किस प्रकार भूतात्मा बनता है और तीसरा- दु:खात्मक स्थिति से मुक्ति किस प्रकार मिल सकती है।
तवल्कार आरण्यक
सामवेद की जैमिनीय शाखा से संबंधित इस आरण्यक को जैमिनीय आरण्यक भी कहते हैं। इसमें चार अध्याय हैं। जिनमें साम मंत्रों का सुंदर विवेचन किया गया है। इस आरण्यक के चतुर्थ अध्याय को केनोपनिषद भी कहते हैं। ब्रह्म और परब्रह्म पर इसमें विस्तृत चर्चा की गई है। तवल्कार में ब्रह्मï के रहस्यमय स्वरूप का विवेचन किया गया  है। परब्रह्मï की सर्वशक्तिमत्ता का विवेचन भी किया गया है। तवल्कार में वायु, अग्नि आदि को ब्रह्म का ही विकसित रूप कहा गया है और जीवात्मा को परब्रह्म का अंश बताया गया है।
छान्दोग्य आरण्यक
सामवेद के ताण्ड्य ब्राह्मïण से संबंधित इस ब्राह्मïण में दस अध्याय हैं, प्रथम दो को आरण्यक कहा गया है, जो आख्यायिका स्वरूप है। इसके शेष आठ अध्याय और 143 खंड छांदोग्य उपनिषद कहे जाते हैं। इसमें ओंकार उपासना, साम उपासना, मधु विद्या, ब्रह्मï उपासना, इंद्रिय परीक्षा, अश्वपति और उद्दालक संवाद और दहर ब्रह्मï की उपासना के आख्यान हैं। सामन् औैर उद्गीथ की आध्यात्मिक दृष्टिï से व्याख्या की गई है। इसमें तत्वज्ञान और तदुपयोगी कर्म और उपासनाओं का विस्तृत वर्णन है। इसमें अमृत विद्या भी विवेचन है।  विश्व समाज को प्रसिद्ध वेदान्त वाक्य तत्वमसि इसी से प्राप्त हुआ है।

आरण्यक : एक दृष्टि
ऐतरेय आरण्यक: 5 आरण्यक, 18 अध्याय
शांखायन आरण्यक : 15 अध्याय, 137 खंड
बृहद आरण्यक : 6 अध्याय, 47 ब्राह्मïण
तैत्तरीय आरण्यक : 10 प्रपाठक, 170 अनुवाक
मैत्रायणी आरण्यक : 7 प्रपाठक
छान्दोग्य आरण्यक : 10 अध्याय
तवल्कार आरण्यक : 4 अध्याय
-आचार्य डॉ.चंद्रशेखर शास्त्री

बुधवार, दिसंबर 07, 2011

सुख समृद्धि का आधार है गीता
कलिकाल के इस भौतिक युग में प्रत्येक प्राणी किसी न किसी प्रकार की आधि व्याधि से ग्रस्त है। यह कलियुग का ही प्रभाव है कि ईश्वर में अनास्था, अनुचित खानपान, अनुचित व्यवहार और अनुचित आचरण के कारण समाज में हर स्तर पर भ्रष्टाचार दिनोदिन बढ़ रहा है। अंधी दौड़ में गलाकाट स्पर्धा से सभी एक दूसरे से आगे निकलने के लिए कर्मशुचिता से दूर होते जा रहे हैं, ऐसे में मानव का दुख के गर्त में गिरना निश्चित है। प्राणी मात्र की मानसिक, आत्मिक और शारीरिक शुचिता के लिए ही भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश के बहाने से समस्त शास्त्रों के सार स्वरूप गीता के ज्ञान से हमें अवगत कराया है, जो निश्चय ही समस्त सुख समृद्धि का आधार है।
गीता समस्त शास्त्रों का सार है। इसीलिए इसे सर्वशास्त्रमयी भी कहा जाता है। भारतीय मनीषा को समझने के लिए वेद को जानना आवश्यक है और वेद को समझने के लिए  शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, ज्योतिष, छंद आदि वेदांग व सांख्य, न्याय, योग, वैशेषिक, पूर्व मीमांसा, उत्तरमीमांसा आदि उपांग के साथ ब्राह्मïण ग्रंथ, आरण्यक, उपनिषद और अनेक अध्यात्म ग्रंथों का अध्ययन करना होगा, जिसके लिए एक जन्म तो निश्चय ही कम पड़ेगा। लेकिन यदि मात्र गीता को पढ़कर ही हृदयंगम कर लिया जाए तो मानव समस्त शास्त्र का ज्ञाता हो जाता है और दैहिक, दैविक, भौतिक आदि त्रिविध तापों से मुक्त हो जाता है। गीता केवल ज्ञान और योग की ही विषयवस्तु नहीं, यह मानव कल्याण के प्रत्येक पहलू को आत्मसात किए हुए है। संसार के समस्त ज्ञान को एकत्र कर गीता रूपी गागर में स्थापित करने वाले भगवान श्री कृष्ण स्वयं कहते हैं कि
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदु:॥

(गीता 4/1-2)
अर्थात् वैसे तो यह ज्ञान अनादि काल से उपदेशित है, लेकिन गीता रूप में यह आज मेरे द्वारा प्रगट हुआ है।
प्रागैतिहासिक दृष्टिï से देखते हैं तो गीता आज से लगभग 5142 वर्ष पूर्व महर्षि वेदव्यास कृत महाभारत के भीष्म पर्व के पच्चीसवें अध्याय के प्रारंभ में संजय के द्वारा धृतराष्ट्र को सुनाया गया वह भाग है, जिसमें कलियुग के प्रारंभ होने के तीस वर्ष पूर्व मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी के दिन कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन के नङ्क्षदघोष नामक रथ पर सारथी के रूप में विराजमान स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा मोहग्रस्त युद्धविमुख अर्जुन को उपदेशित किया गया है। इसी दिन को हम गीता जयन्ती के रूप में मनाते हैं। गीता के पहले अध्याय के बीसवें श्लोक से संजय भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद रूप में श्रीमद् गीता का आरंभ करते हैं और अठारहवें अध्याय के चौहत्तरवें श्लोक में इति पद से इसका समापन करते हैं।
श्रीमद्भगवद् गीता में 18 अध्याय हैं, जो अर्जुनविषादयोग, सांख्ययोग, कर्मयोग, ज्ञानकर्मसंन्यासयोग, कर्मसंन्यासयोग, आत्मसंयमयोग, ज्ञानविज्ञानयोग, अक्षरबह्मïयोग, राजविद्याराजगुह्ययोग, विभूतियोग, विश्वरूपदर्शनयोग, भक्तियोग, क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग, गुणत्रयविभागयोग, पुरुषोत्तमयोग, दैवासुरसम्पद्विभागयोग, श्रद्धात्रयविभागयोग और मोक्षसंन्यासयोग के नाम से प्रसिद्ध हैं। सभी अध्यायों में प्रवृत्ति तथा प्रकृति में सामंजस्य स्थापित कर निष्काम भाव से कर्म करने की प्रेरणा दी गई है। निष्काम भाव से किया गया कर्म ही भगवत प्राप्ति का कारक कहा गया है। ईश्वर की उपासना के सकाम एवं निष्काम दो भाव बताए गए हैं। दोनों का फल प्राणी को अपने भाव के अनुरूप ही प्राप्त होता है, लेकिन भावना के अनुसार दोनों के फलों में भिन्नता भी होती है। सकाम भाव के भक्त को जहां सांसारिक भोग एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है, वहीं निष्काम भाव से भक्ति करने वाला ईश्वरीय सत्ता का अधिकारी परमात्म तत्व को प्राप्त होता है। सांसारिक सुख तो समय सीमा से बंधे है, जिनका नष्टï होना निर्धारित है, किन्तु मोक्ष सुख तो समस्त कर्मों के क्षय होने के पश्चात ही प्राप्त होता है। यही सच्चिदानंदस्वरूप है और यही एकमात्र मानव जीवन का परम लक्ष्य है।
वस्तुत:गीता का उपदेश भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन के माध्यम से समस्त जीवों के आत्म कल्याण के लिये ही किया है। आत्मतत्व की दृष्टि से संसार के सभी प्राणी एक समान हैं। इनमें न तो कोई छोटा है न बड़ा। हाथी से चींटी तक सभी बराबर हैं। न कोई कोई श्रेष्ठ है और न कोई हीन। न कोर्ई ब्राह्मण है और न ही शूद्र। समस्त भेदों से परे तथा हानि लाभ, जीवन मरण, यश-अपयश, सुख दुख आदि सभी स्थितियों से ऊपर आत्मतत्व का स्वरूप होता है। जो इन सभी परिस्थितियों में समभाव से उस परमतत्व का ध्यान करता है, उसी में रमण करता है, वही परमात्मा को प्राप्त करता है। गीता के सत्य, ज्ञानपूर्ण व गंभीर उपदेश, आत्मसात करने वाले मनुष्य को महापतित दशा से उठाकर देवताओं के स्थान पर बैठाने की शक्ति रखते हैं।
समस्त सृष्टि में जो ज्ञेय है अथवा अज्ञेय है, प्रतीति है या अनुभव से परे है, वह सब माया है। समस्त चराचर में परमात्मा ही विद्यमान है। पुनरपि वह निर्लिप्त है। वह केवल दृष्टा है। मार्गदर्शक है और सुख दुख हर्ष विषाद आदि से परे है। वहीं संसार के सभी प्राणी अपने अपने कर्मों के अनुसार सुख या दुख पाते हैं। अपने भीतर होने वाली सभी प्रवृत्तियों का कर्ता, हर्ता एवं नियन्ता प्राणी स्वयं ही है। इसीलिए यह संसार सुख दुख, हानि लाभ, हर्ष विषाद आदि से भरा पड़ा है। जहां जीव को सृष्टिï के अटल नियम के अनुसार अपने अपने कर्म का फल भोगना होता है। यही गीता का सार है।
संसार में किसी भी ग्रंथ की जयंती नहीं मनाई जाती, केवल गीता जयंती मनाने की परंपरा पुरातन काल से चली आ रही है क्योंकि अन्य ग्रंथ किसी मनुष्य द्वारा लिखे या संकलित किए गए हैं, जबकि गीता स्वयं श्रीभगवान के श्रीमुख से नि:सृत है-
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनि:सृता।।
इसलिए इस ग्रंथ में कहीं भी श्रीकृष्ण उवाच शब्द नहीं आया है। जब श्रीकृष्ण बोलते हैं तो श्रीभगवानुवाच का प्रयोग किया गया है। कलियुग के प्रभाव के कारण धर्म लोप की अवस्था में अज्ञान तिमिर से मुक्त करने वाला ग्रंथ केवल गीता ही है। क्यों कि शास्त्र कहते हैं कि कलि प्रभाव से न तो अब अवतार होंगे, न ही सिद्धियां होंगी, साधुता और तपस्विता के भी दर्शन नहीं होंगे और प्रजापरायण नीतिवान, परोपकारी राजा भी नहीं होंगे। अनाचार अपने चरम पर होगा। ऐसे में आत्मकल्याण का एक ही मार्ग बचता है और वह है गीता ज्ञान।
श्रीमद्भगवद्गीता जीवन में सफलता की कुंजी है। न सिर्फ विद्वानों ने, बल्कि विश्व के अनेक सफल व्यक्तियों ने श्रीमद्भगवद्गीता के महत्व को समझा है और उससे प्रेरणा भी ग्रहण की है। स्वामी विवेकानंद ने गीता को अपने जीवन व्यवहार में उतारा था। स्वामी कल्याण देव ने शिक्षा की अलख जगाने में गीता को ही चरितार्थ किया था। गीता जीवन के गूढ़ रहस्यों को सुलझाती है। गीता की उपयोगिता इसी बात से देखी जा सकती है कि हजारों वर्ष पश्चात भी इसकी प्रासंगिकता यथावत है। क्योंकि उस समय की समस्याएं और परिस्थितियां आज भी विद्यमान हैं। आज के इस जीवन संघर्ष में तो गीता की उपयोगिता व प्रासंगिकता और अधिक हो गई है, क्योंकि यह अध्यात्म भी है और व्यावहारिक होने के कारण विज्ञान भी। गीता का आध्यात्मिक तत्व यह है कि यह संसार एक युद्धस्थल है, जिसमें प्रत्येक प्राणी सत्य और श्रेष्ठïता के लिए किसी न किसी रूप में बुराइयों से युद्धरत है। कौरव बुराइयों और पांडव अच्छाइयों के प्रतीक हैं। गीता का संदेश है कि यदि अपने कर्म में निरंतर रत रहा जाए और संघर्ष निरंतर रखा जाए, तो अंत में विजय अच्छाइयों की ही होती है।
वेदों के विस्तारकर्ता, पुराणों और महाभारत के रचयिता महर्षि वेदव्यास कहते हैं कि गीता का ध्यान के साथ श्रवण और पठन-पाठन करने व इसकी प्रत्येक पंक्ति का मनन करने से आत्मतत्व की प्राप्ति होती है। जीवन के रहस्यों को सुलझाने में गीता के अध्येता को शास्त्रसंग्रह की कोई आवश्यकता नहीं रहती है। श्रीकृष्ण के मुख से प्रगट गीता में संसार की सभी समस्याओं का समाधान निहित है

रविवार, मई 29, 2011

वाम मार्ग क्या है?

वाम मार्ग क्या है?
युगों युगों से अध्यात्म के महान संसार में स्वयं को जानने और परम तत्व को प्राप्त की इच्छा के चलते मानव अपने लक्ष्य को निर्धारित कर स्वयं को अनुशासन में बद्ध करके अध्यात्म के विभिन्न मार्गों के माध्यम से उस परम तत्व की खोज करता है। जिन्हें अनेक नामों से जाना जाता है। जैसे वाम मार्ग, दक्षिण मार्ग, ज्ञान मार्ग, भक्ति मार्ग, योग मार्ग, आनन्द मार्ग, पिशाच मार्ग आदि।
हम यहां वाम मार्ग की चर्चा करेंगे। वाम शब्द का अर्थ बांया, स्त्री से संबंधित और उलटा है। यहां इसका अर्थ वामा अर्थात स्त्री से है। वाम मार्ग में स्त्री के सम्मान को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। जो विभिन्न रूपों में मातृस्वरूप होती हैं। ऐसा माना जाता है कि बिना वामा की प्रसन्नता के, बिना उसके सहयोग के किसी भी कुल में कोई उच्चावस्था या सिद्धि प्राप्त नहीं की जा सकती।
वाम मार्ग में जाति व्यवस्था को क्षुद्रता माना जाता है और स्त्री को शक्ति स्वरूपा। जाति से उठकर स्त्री को शक्ति स्वरूपा मानकर ही साधक उच्चावस्था को प्राप्तकर अपने लक्ष्य को पा सकते हैं, क्यों कि वाम मार्ग में स्त्री को जो सम्मान प्राप्त है, वह कहीं ओर प्राप्त हो ही नहीं सकता। विभिन्न जाति की महिलाओं को ऊर्जा / शक्ति अर्थात् सर्वोच्च शक्ति का रूप माना जाता है।
इस संबंध में रसयामल तंत्र के उत्तर तंत्र में कहा गया भी है कि
रजस्वला पुष्करं तीर्थ चाण्डाली तु महाकाशी।
चर्मकारी प्रयाग: स्याद्रजकी मथुरामता॥
वाम मार्ग में साधक, स्त्री को वह पवित्रावस्था में हो या अपवित्रावस्था में, अपने जीवन और शरीर से अधिक महत्वपूर्ण और शक्तिवाहिनी मानता है।
वाम मार्गीय तंत्र में न तो जातियां ही महत्वपूर्ण हैं और न रंगभेद। इस मार्ग में मां के नौ रूपों में  भिन्न भिन्न जाति की कन्याओं को सर्वोच्च शक्तिसंपन्न मां दुर्गा का रूप मानकर पूजा जाता है।
रसयामल तंत्र के उत्तर तंत्र में इस संबंध में स्पष्टï कहा गया है कि
नटी कपालिका वेश्या रजकी नापिताङ्गना।
ब्रह्माणी शुद्रकन्या च तथा गोपालकन्यका:।
मालाकारस्य कन्या च नवकन्या प्रकीर्तिता:॥
अर्थात् नट की कन्या, अंतिम संस्कार कराने वाले की कन्या,  वेश्या की कन्या, वस्त्रादि धोकर आजीविका चलाने वाले की कन्या, नापित की कन्या, ब्राह्मïण की कन्या, शूद्र कर्मकार की कन्या, गौ आदि चराकर उदरपूर्ति करने वाले की कन्या और बाग बगीचों का कार्य कर उदराभरण करने वाले की कन्या। इन सभी नौ कन्याओं को दुर्गा स्वरूपा देवी माना जाता है। माँ के नौ समान शक्तिशाली पवित्र रूपों में सर्वशक्तिमान इन नौ कन्याओं को मां दुर्गा देवी की तरह पूजा जाता है और सम्मान दिया जाता है।
नवरात्रि के पर्वों पर पारणा के समय जब इन नव दुर्गा देवी स्वरूपा कन्याओं को पुष्प, फल, भोजन और दक्षिणा आदि प्रदानकर उन्हें प्रसन्न किया जाता है और उनसे आशीर्वाद लिया जाता है। उस समय उनके भोजनादि से निवृत्ति के बाद बचे अवशिष्टï को मां का प्रसादस्वरूप मानकर ग्रहण किया जाता है।
रसयामल तंत्र के उत्तर तंत्र में इसका उल्लेख इस प्रकार किया गया है।
धूपैर्दीपैश्च नैवैद्यैर्विविधै: भगवतीश्ननन्।
विधाय वन्दितां तां च तदुच्छिष्ट स्वयंचरेत्॥
भगवान विष्णु के अवतार, सूर्यवंश के प्रतापी अयोध्या के राजा प्रभु राम द्वारा वाम मार्ग का साधन करते हुए वनवास काल के दौरान शूद्रा शबरी के द्वारा उच्छिष्ट किए गए फलों को ग्रहणकर बिना किसी अहंकार के या छुआछूत के किसी भी मुद्दे पर विचार किए बिना वाममार्ग का पालन किया।
वाममार्ग में कहा है कि अगर एक शक्तिशाली और सक्रिय (शिष्य) अपने जाति, पंथ, अभिमान, अहंकार, धन, आदि के प्रभाव में इन नौ (देवी नौ महिलाओं, जो माँ देवी दुर्गा के नौ रूपों के बराबर माना जाता है) देवियों का अपमान करता है तो वह अपनी शक्ति और ऊर्जा खो देता है, चाहे वह स्वयं देवताओं का राजा इंद्र ही क्यों न हो। यदि इंद्र भी ऐसा करेगा तो  वह भी अपनी सत्ता और राज्य खो देता है।
वाम मार्ग तंत्र में स्पष्ट कहा है कि
अविचारं शक्त्युच्छिष्ठ पिबेच्छक्रपुरो यदि।
घोरञ्च नरकं याति वाममार्गात्पतेद्ध्रुवम्॥
यह मार्ग अघोर मार्ग है। भगवान् शिव को अघोरेश्वर कहा जाता है। वाम मार्ग को भगवान् शिव का मार्ग भी कहा जाता है।
यह मार्ग प्रकृति के कृतित्व निर्माण के लिए जाना जाता है, इसके माध्यम से बिना किसी भ्रम के पुनरोत्पादन, पुनर्निर्माण, विकास और क्रियात्मकता का मार्ग खुलता है।
भगवान शिव जो खुद वाम मार्ग का अनुयायी कहा जाता है। वे अर्धनारीश्वर हैं, जिसका अर्थ है - जो आधा स्त्री हो और आधा पुरुष हो।
इस पथ का अनुयायी सब झंझओं से मुक्त हो जाता है और अघोरी शिष्य कहा जाता है, जो साधना के बल पर भगवान शिव के समान हो जाता है।
महानिर्वाण तंत्र में कहा गया है-
पाशबद्धो भवेज्जीव: पाशमुक्त: सदाशिव:॥
ये भगवान् शिव ही भैरव रूप में प्रगट होते है।
भैरवोऽहम् शिवोऽहम्॥
अर्थात् मैं भैरव हूँ और मैं शिव हूं। शिव हमेशा गहराई में ध्यान केंद्रित हैं। शक्ति में स्थित हैं। बिना शक्ति के शिव  शव मात्र हैं। शक्ति को धारण करने के बाद इस मार्ग का शिष्य/अनुयायी भैरव के समान है जिसका अर्थ है वह खुद को शिव के रूप में ही स्थिति पा लेता है।
-चंद्र शेखर शास्त्री

शुक्रवार, मई 27, 2011

मेरे जिगर का खून...

मेरे जिगर का खून... 

कल उसने मुझे
झकझोर दिया
जब यादों के बगीचे में
बंजर हो गई जमीन पर
इक फूल
मुस्कुरा उठा।
वह ख्वाब था
या हकीकत
यह मैं जान न पाया।
मैं भौंचक्का था
दिग्भ्रमित सा
कि बंजर में फूल
कैसे खिल आया
मैं बगीचे के पास आया।
यादों को अश्रुजल से सींचा
और खिले हुए
फूल को देखकर
कुछ मैं भी खिला।
मैं खिलखिलाते
फूल की ओर बढ़ा
फूल मुझे देखकर
कुछ और खिला
और मुस्कुराया।
मैंने चाहा कि
इस फूल को ले चलूं
अपने साथ
कि यहां का नाशाद बंजर
इसे फिर सुखा देगा।
पर ज्यों ही मैंने
फूल की तरफ
हाथ बढ़ाया
वह भरभराकर
बिखर गया
उसी बंजर में
और मेरे हाथ में था
फूल का
कांटों भरा तना
जिसकी चुभन से
टपक रहा था
मेरे जिगर का खून...
-चंद्र शेखर शास्त्री 'वारिद'

गुरुवार, मई 05, 2011

जहां चमत्कार स्वयं नमस्कार करते हैं

बाबा कामराज जी महाराज 

मंदिर का प्राचीन शिलालेख

परमगुरुदेव श्री प्रेमानंद जी महाराज

गुरुदेव श्री बापू गोपलानंद जी महाराज

गुरुभाई श्री कैलाशानंद जी महाराज

ma dakshin kali mandir ka vihangam drishya

asli brahmkund

diksha ke samaya ishvariya satta se sakshatkar  karate hue gurudev
अनादि सिद्धपीठ श्री दक्षिण काली मन्दिर, हरिद्वार
जहां चमत्कार स्वयं नमस्कार करते हैं
हरिद्वार में नील पर्वत की तलहटी के कजरी वन में गंगा की नीलधारा के तट पर स्थित दस महाविद्याओं में प्रथम सिद्धपीठ मां दक्षिण काली के मन्दिर पर पूरे विश्व के महाकाली साधक पुत्र अपनी अभीष्ट साधना करते हैं, जिसका देवी भागवत में श्यामापीठ, योगिनी हृदयम्,काल कल्पतरु एवं कुलार्णव तंत्र में दक्षिण काली तथा रुद्रयामल तंत्र में कामराज कूट पीठ के नाम से वर्णन किया गया है तथा काली हृदय कवच में भगवान शिव ने उमा को श्यामापीठ में साधना का निर्देश दिया था।
चण्डीघाट की ३३ एकड़ भूमि में स्थित इस सिद्धपीठ में ७१वें पीठाधीश्वर श्रीमहंत कैलाशानंद ब्रह्मचारी के सानिध्य में निरन्तर अन्न क्षेत्र, गौशाला, वृद्ध सेवाश्रम, धर्मार्थ चिकित्सालय, वेद विद्यालय तथा संत सेवा के साथ ही नियमित अनुष्ठान एवं पूजा अर्चना होती है। गुप्त व प्रकट चारों नवरात्र में विशेष अनुष्ठानों का आयोजन होता है। प्रकट नवरात्रों में पूरे देश के भक्त विशेष कार्य सिद्धि अनुष्ठानों का आयोजन करते हैं, ज्येष्ठ शुक्ल सप्तमी के दिन बाबा कामराज जी का जन्मदिन बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है और श्रावण मास में प्रतिदिन महारुद्राभिषेक का आयोजन होता है। वाममार्गीय परम्परा की इस पीठ पर मां दक्षिण काली अनादि काल से विराजमान हैं, मां ने स्वयं बाबा कामराज को यहां मंदिर मे अपने विग्रह के मंदिर स्वरूप की स्थापना का आदेश दिया था, जिसके बाद दसवीं सदी में तंत्र सम्राट साक्षात् शिवस्वरूप बाबा कामराज महाराज ने १०८ नरमुण्डों पर मन्दिर की स्थापना की, ये नरमुंड़ उन लोगों के होते थे, जो पूर्व में ही मृत्यु को प्राप्त होकर नीलधारा में बहते हुए वहां आ जाते थे, बाबा कामराज उन्हें तंत्र क्रिया से जीवित करके उन्हें वस्तुस्थिति से अवगत कराते थे और उन्हें बलि के लिए सहमत करते थे, जो मृतक जीवित होने के बाद स्वयं को मां के चरणों में स्वयं को अर्पित कर देते थे, उनकी सहमति के बाद उनकी बलि होती थी, उसके बाद उनके शवों का अग्नि संस्कार होता था।
वाम मार्ग की इस विश्वविख्यात पीठ का मां की सिद्धकृपा से आशीर्वाद प्राप्तकर कश्मीर के राजा हरिसिंह, हरियाणा, पंजाब, बंगाल के राजघरानों के अतिरिक्त लखनऊ के नवाब तथा अकबर के परिवार ने भी मन्दिर का जीर्णोद्वार कराया था। उस समय यह मंदिर वर्तमान स्थान से सैंकड़ों फुट नीचे था। इन भक्तों ने समय समय पर इसे मन्दिर के गर्भगृह सहित ऊपर उठाकर मन्दिर पुनरुद्धार कर मां का आशीर्वाद लिया। इस सिद्धपीठ की विशेषता है कि आज भी रात्रि के तीसरे एवं चौथे प्रहर में मां काली एवं बाबा कामराज अपने भक्तों को दर्शन देकर उनका कल्याण करते हैं। दोनों प्रकट नवरात्रों में आयोजित होने वाले रात्रि कालीन अनुष्ठानों में सीमित मात्रा में वे भक्त ही सम्मिलित हो पाते हैं, जिन पर मां की कृपा होती है। शारदीय तथा वासंतीय नवरात्रों में मां काली की प्रेरणानुरूप अनवरत सहस्रचंडी अनुष्ठान, यज्ञ तथा महामृत्युञ्जय अनुष्ठान विश्व कल्याण की कामना से किया जाता है। विश्व की यह प्रथम सिद्धपीठ है जहां किसी यजमान से कोई दक्षिणायाचन नहीं किया जाता और भक्त को भी मां से कुछ मांगना नहीं पड़ता। मात्र माता के दरबार में हाजिरी देने से कल्याण हो जाता है। विशेष कार्य सिद्धि के लिये ही अनुष्ठानों का आयोजन होता है।
मन्दिर सतयुग कालीन प्राचीन ब्रह्मकुण्ड के पास स्थित है, जैसा कि पुराणों में वर्णित है कि गंगा की नीलधारा में ही ब्रह्मकुंड है। परन्तु अज्ञानतावश लोग हर की पैड़ी को ब्रह्मकुंड़ मान बैठते है। इस ब्रह्मकुंड को मच्छला कुण्ड के नाम से जाना जाता है। आल्हा की पत्नि मछला इसी कुण्ड में नियमित स्नान करती थी इसीलिये इसे मछला कुण्ड भी कहते हैं और इस कुण्ड में आज भी अथाह जलराशि है, अंग्रेज भी इस कुण्ड की थाह नहीं ले पाये तो उन्होंने बैराज बनाकर गंगनहर निकाली जहां वर्तमान ब्रह्मकुण्ड हरकी पैडी के नाम से प्रसिद्ध है। बाबा कामराज महाराज ने इसी ब्रह्मकुण्ड में आल्हा को स्नान करवाकर अमर होने का वरदान दिया था। समुद्र मंथन से निकले अमृत की बूंद गिरने से यहां ब्रह्मकुण्ड बना और भगवान भोलेनाथ ने समुद्र मंथन से निकले हलाहल को कण्ठ में धरण कर उसकी उष्णता समाप्त करने के लिये गंगा की जिस मुख्य धारा में स्नान किया, वह हलाहल विष के प्रभाव से नीली हो गई, गंगा की उसी धारा को नीलधारा कहते है जिसका जल आज भी नीले रंग का होता है। इसी नीलधारा के तट पर विराजमान होकर मां दक्षिण काली अपने भक्तों का कल्याण करती हैं।
श्री दक्षिण काली मन्दिर के अन्वेषक बाबा कामराज महाराज, जो अमरा  गुरु के नाम से विख्यात हुए, सन् १२१९ में ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष सप्तमी को मंदिर की देखरेख अपने शिष्य बाबा कालिकानंद जी महाराज को सौंपकर तीर्थाटन के लिए मन्दिर से अदृश्य हो गए। वे आठवें दीर्घजीवी हैं और मां के साथ मन्दिर परिसर में ही विद्यमान हैं। समय समय पर साधकों को उनके दर्शन होते रहते हैं। इस मन्दिर परिसर में स्थायी रूप से एक सफेद नाग-नागिन, एक काला नाग-नागिन तथा एक अजगर निवास करते हैं जो श्रावण मास पर्यन्त पूरे मन्दिर परिसर में भक्तों के साथ रहते हैं और स्पर्श के बाद भी काटते नहीं।
काली मन्दिर कलकत्ता के मुख्य सेवक स्वामी रामकृष्ण परमहंस के गुरु तोतापुरी महाराज ने इसी पीठ से तंत्र साधना प्रारम्भ की थी। गुरु शिष्य परंपरा के अनुसार देखते हैं तो बाबा कामराज जी महाराज के शिष्य हुए बाबा तोतापुरी जी महाराज और तोतापुरी जी महाराज के शिष्य थे स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी। तारा पीठ के संस्थापक तथा पूरे विश्व में तंत्र विद्या के मूल प्रवर्तक वामाखेपा ने भी बाबा कामराज से ही दीक्षा लेकर शमशान काली की स्थापना की। दिल्ली छतरपुर स्थित कात्यायिनी पीठ के संस्थापक बाबा नागपाल जी महाराज ने भी इसी स्थान पर साधना की थी तथा दतिया स्थित पीताम्बरा पीठ मां बंगलामुखी मंदिर के संस्थापक राष्ट्रीय स्वामी दतियावाले भी यहां साधना करते थे। आसाम में कामाख्यापीठ में दस महाविद्या की स्थापना करने से पूर्व अघोर तंत्रशिरोमणि बबलू खेपा ने भी बाबा कामराज से दीक्षा ली जबकि उन्होंने अन्तिम दीक्षा आल्हा को दी। सतना की मैहर स्थित शारदापीठ जिसे सरस्वती पीठ के नाम से जाना जाता है वहां आज भी ब्रह्ममुहूर्त में सर्वप्रथम आल्हा ही पूजा करता है इसके बाद वहां का पुजारी अन्य भक्तों को दर्शन पूजन की अनुमति देता है।
बाबा कामराज के बाद भगवती के उच्च साधक बाबा कालिकानंद जी महाराज, बाबा देवकीनंदन जी महाराज, बाबा रामचरित्रानंद जी महाराज, बाबा कपाली केशवानंद जी महाराज, अघोर सम्राट बाबा रामतीर्थानंद जी महाराज, बाबा स्वरुपानंद जी महाराज, बाबा रामरथानंद जी महाराज, बाबा प्रेमानंद जी महाराज आदि के बाद १९८४ से २००६ तक बाबा प्रेमानंद जी महाराज के शिष्य साक्षात् शिवस्वरूप श्री महंत बापू गोपालानंद जी ब्रह्मचारी जी महाराज के शिष्य स्वामी सुरेशानंद ब्रह्मचारी इस पीठ के पीठाधीश्वर रहे और उन्होंने ही अपने गुरुभाई बापू गोपालानंद ब्रह्मचारी जी महाराज के शिष्य श्रीमहंत कैलाशानंद ब्रह्मचारी का चयन किया जो २००६ से ७१वें पीठाधीश्वर के रूप में मां की सेवा कर रहे हैं।
वर्तमान में यह मंदिर अग्नि अखाड़े से संबंधित है और अग्नि अखाड़े के सभापति है 138 वर्षीय महान साधक साक्षात् शिव स्वरूप अमोघ शक्तिपात के ज्ञाता श्री 108 श्री महंत बापू गोपालानंद ब्रह्मचारी जी महाराज।