शुक्रवार, मई 27, 2011

मेरे जिगर का खून...

मेरे जिगर का खून... 

कल उसने मुझे
झकझोर दिया
जब यादों के बगीचे में
बंजर हो गई जमीन पर
इक फूल
मुस्कुरा उठा।
वह ख्वाब था
या हकीकत
यह मैं जान न पाया।
मैं भौंचक्का था
दिग्भ्रमित सा
कि बंजर में फूल
कैसे खिल आया
मैं बगीचे के पास आया।
यादों को अश्रुजल से सींचा
और खिले हुए
फूल को देखकर
कुछ मैं भी खिला।
मैं खिलखिलाते
फूल की ओर बढ़ा
फूल मुझे देखकर
कुछ और खिला
और मुस्कुराया।
मैंने चाहा कि
इस फूल को ले चलूं
अपने साथ
कि यहां का नाशाद बंजर
इसे फिर सुखा देगा।
पर ज्यों ही मैंने
फूल की तरफ
हाथ बढ़ाया
वह भरभराकर
बिखर गया
उसी बंजर में
और मेरे हाथ में था
फूल का
कांटों भरा तना
जिसकी चुभन से
टपक रहा था
मेरे जिगर का खून...
-चंद्र शेखर शास्त्री 'वारिद'

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