शनिवार, अप्रैल 03, 2010

संन्यासी का असली कार्य संसार को सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करना है - स्वामी कल्याण देव


संन्यासी का असली कार्य संसार को सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करना है - स्वामी कल्याण देव


बात पांच साल पुरानी है। मैं और मेरे कवि मित्र श्री अवधेश शर्मा, जिन्होंने स्वामी कल्याणदेव जी की प्रेरणा से मेरे संपादन में रामचरित मानस की शैली में चौपाई सोरठा आदि छंद में पश्चिमी उत्तरप्रदेश की भाषा में प्रथम बार गीता का काव्यानुवाद किया था, पुस्तक के प्रकाशन के बाद उसकी प्रति स्वामी जी को भेंट करने गए। मुजफ्फरनगर पहुंचने से पहले ही हमें पता चल गया था कि स्वामी जी भोपा रोड़ पर गांधी पॉलीटेक्निक स्थित अपनी कुटिया पर हैं तो मन में दर्शन की इच्छा वेगवती नदी की तरह उफान पर आने लगी। याद आने लगा कि लगभग पच्चीस वर्ष पूर्व जब श्री लक्ष्मीनारायण मंदिर मोदीनगर में मेरे पिताश्री की कृपा से स्वामी जी के मुझे प्रथम दर्शन हुए थे तो मैं उनके विचार चिंतन में किस प्रकार खो गया था। स्वामी जी मंदिर के अतिथिगृह में पधारे हुए थे और निरंतर कर्मलीन रहते थे। जब मैंने उनके चरण स्पर्श किए तो आशीर्वाद देते हुए उन्होंने बैठने के लिए कहा। मैं उनके चरणों में बैठ गया। उन्होंने प्लेट में पहले से रखे केले उठाए और छीलकर मुझे दिए। संत के हाथों से प्रसाद पाकर मैं धन्य हो गया। इसके बाद उन्होंने अपने कागजों से कुछ पोस्ट कार्ड निकाले और मुझे देते हुए कहा कि मैं बोल रहा हूं और तुम पत्र लिखो। मैंने स्वामी जी के कथ्य को लिपि दी और उन्हें दे दिए। स्वामी जी ने शिक्षा के समुचित प्रबंध के लिए किन्हीं विद्यालयों के लिए शिक्षा अधिकारियों को ये पत्र लिखवाए थे।

संतों की जीवन शैली से तो मैं गुरुकुलीय शिक्षा के कारण परिचित था, मैने नए नए कौपीन बांधे और उत्तरीय धारण किए अनेक संतों के दर्शन किए थे, लेकिन मैं पहली बार किसी ऐसे विरक्त संत के समीप था जो स्वयं तो फटे चिथड़े धारण किए हुए था लेकिन संसार के सौंदर्य के लिए अति आवश्यक शिक्षा का प्रचार प्रसार कर वास्तव में अज्ञान से मुक्त करना चाहता था, जिसमें करोड़ों रुपए की लागत आती है। इसलिए मैं मुग्ध हुए बिना न रह सका। वहां बैठे हुए मुझे अभी एक घंटा के लगभग हो गया था, लेकिन स्वामी जी लगातार अनेक अधिकारियों को पत्र लिखवाए जा रहे थे। मैं पत्र लिखने के साथ साथ विचार कर रहा था कि यदि सभी संत विश्व कल्याण की इसी भावना से ओतप्रोत हो जाएं तो भारत को पुन: विश्वगुरु बनने से कौन रोक सकता है। ...आखिर पत्र लेखन का सिलसिला बंद हुआ तो मैंने स्वामी जी से पूछा कि भारत के अनेक संत हिमालय पर तपस्या कर रहे है और जप तप से विश्व कल्याण को अग्रसर हैं ऐसे में आप जप तप छोडकर शिक्षा को इतना महत्व क्यों देते हैं। मैं गुरुकुल से आया ब्रह्मïचारी था, मेरे सरल स्वभाव से किए गए प्रश्न पर स्वामी जी ने मुझे समझाते हुए कहा कि संन्यासी का असली कार्य संसार को सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करना है और सही मार्ग शिक्षा का है। यदि शिक्षा उचित होगी तो व्यक्ति कभी भी समाज का अहित नहीं करेगा और यदि शिक्षा में दोष हुआ तो वह कभी समाज का भला नहीं करेगा। इसलिए सबसे पहले मानव का शिक्षित होना जरूरी है। केवल उपदेश देने से संसार का भला नहीं हो सकता, इसके लिए कर्म करना होगा, शिक्षा का विस्तार करना होगा, यही मानवता की सच्ची सेवा है। मैं तो तमाम संतों और धर्माचार्यों से भी यही कहता हूं कि आश्रम छोड़ो और गांव गांव पैदल घूमकर संस्कृति का प्रचार करो शिक्षा का स्तर उठाओ, यही तपष्चर्या का जीवन है, यदि संस्कृति बचानी है तो शिक्षा के स्वरूप को बचाओ।

गाड़ी गांधी पॉलीटेक्निक पहुंच चुकी थी, अवधेश जी ने जैसे सोते से जगाया कि चलो स्वामी जी की कुटिया आ गई है तो चक्षुरुन्मीलित करते हुए मैं कार से उतरा। कुटिया के दाईं ओर जाल लगा एक कमरा सा बना था जहां आगंतुकों के लिए कुर्सियां रखी हुईं थीं। एक ओर मेज लगी हुई थी जिसके पीछे लगी कुर्सी पर शांति की प्रतिमूर्ति एक संत विराजमान थे। जो दर्शनीय थे, अपने स्नेहिल स्वभाव से ओतप्रोत किसी पुस्तक में मग्न थे। जब हम वहां पहुंचे तो उन्होंने सत्कार के साथ स्थान ग्रहण करने को कहा और जल आदि व्यवस्था के बाद अपने हाथों से छीलकर केले प्रसाद में दिए और आने का कारण पूछा। यह परम पूज्य स्वामी ओमानन्द ब्रह़मचारी जी से हमारा प्रथम परिचय था।

स्वामी ओमानन्द जी को हमने अपने आने का उद्देश्य बताते हुए निवेदन किया कि स्वामी कल्याणदेव जी की प्रेरणा से प्रकाशित नव अनूदित गीता की प्रति स्वामी जी को भेंट करनी है। तो स्वामी ओमानन्द जी ने बताया कि स्वामी जी रुग्ण हैं।... और वे हमसे बैठने को कहकर स्वामी जी के पास गए। थोड़ी ही देर में हमें बुला लिया गया। स्वामी जी रोगशैय्या पर थे। परंतु हमें देखकर उन्होंने स्वामी ओमानन्द ब्रह्मïचारी जी से बैठाने को कहा और गीता की प्रति माथे से लगाते हुए हमें आशीर्वाद दिया। उनके बैठने के इशारा करने पर हम वहीं बैठ गए। स्वामी जी स्पष्टï नहीं बोल पा रहे थे, उन्होंने स्वामी ओमानन्द जी को कुछ इशारा किया तो स्वामी ओमानन्द जी ने मोदक प्रसाद का डिब्बा स्वामी जी के हाथों में दे दिया। स्वामी जी ने अपने हाथों से हमें प्रसाद दिया और उनके आशीर्वाद से हम कृतार्थ हो गए।

घर घर में शिक्षा का दीपक जलाने वाले शिक्षाऋषि परम पूज्य स्वामी कल्याणदेव जी महाराज भौतिक शरीर को त्यागकर सूक्ष्म रूप में हमारे बीच विद्यमान हैं और उनके बताए मार्ग पर उनके परम शिष्य स्वामी ओमानन्द ब्रह्मïचारी जी महाराज के कुशल निर्देशन में शिक्षा की मशाल अहर्निश जलती रहेगी।

-चंद्र शेखर शास्त्री

1 टिप्पणी:

चिट्ठाचर्चा ने कहा…

आईये... दो कदम हमारे साथ भी चलिए. आपको भी अच्छा लगेगा. तो चलिए न....